पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१६०

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ना- - + +4 भक्तिसुधास्वाद तिलक। सोइ विवेक, सोइ रहनि प्रभु ! हमहिं कृपाकरि देहु ॥" चौपाई। सुनि मृदु गूढ़ रुचिर वचरचना । कृपासिन्धु बोले मृदु बचना ॥ "जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं । मैं सो दीन्ह सब संशय नाहीं॥ मातु । विवेक अलौकिक तोरे । कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरे।।" श्रीसतरूपाजी श्रीसुरपुर में बसने के अनन्तर श्री १०८ अयोध्या- जी में, मातु श्री १०८ कौशल्याजी महारानी हुई, जिनकी भक्तिवश अखण्डैक परात्पर ब्रह्म प्रियतम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी,श्रीअवध में या प्रगट हुए । अम्बा श्री १०८ कौशल्या महारानीजी की जय ।। चौपाई। मङ्गल मूल राम सुत जासू । जो कछु कहिय थोर सब तासू ।। तेहिते मैं कछु कहउँ बखानी । करन पुनीत हेतु निज वानी।। दो "कॉन तासु महिमा कहाँ, जासु सुवन श्रीराम । विना काम सब काममद, सहित काम नहिं काम ॥" वारिधि रस वात्सल्य की कौशल्या बेला मनहु ।। कृपाप्रीति प्रभुभक्ति सुकीरति सकल सकेली । चिरच्यो चतुर विरंचि राम जननी मुद वेली ।। सीतासरिस स्वभाव धर्मधुरधरणि उदारा । भरतादिक को करति रामते अधिक दुलारा । मातु सुमित्रा श्रादि सव अति अनन्य तेहि सम गनहु । वारिधि रस वात्सल्य की कौशल्या वेला मनहु ॥ (५३) श्रीप्रसूतीजी। श्रीसतरूपा मनुजी की कन्या, श्रीदक्षजी की धर्मपत्नी, श्रीप्रसूती- जी, अतिशय पतिव्रता तथा भगवद्भक्तिपरायणा हुई । आपकी स्तुति किससे हो सकती है । तीनों वहिने एक से एक बढ़के प्रशंसनीय हुई । (५४) श्रीप्राकृतीजी। महाराज श्रीस्वायंभुवमनु और महारानी श्रीसतरूपाजी की नन्दिनी श्रीयाकूतीजी का विवाह, श्रीरुचिऋषिजी से हुआ। इनकी भगवद्भक्ति तथा पातिव्रत की प्रशंसा कौन कवि कर सकता है। आप तीनों श्री- उत्तानपादजी और श्रीप्रियव्रतजी की भगिनी (वहिन) थीं ।