पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१४०

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+ ++ + +Har 4-0marineerHAN u gandment भक्तिसुधास्वाद तिलक । १२१ जो जलावन दी, उसमें लाखों चींटियां भरी थीं !!! मैंने प्रभु को भोग लगाकर प्रसाद पा लिया। ___ "उन चींटियों के कारण एक एक बेर प्रत्येक के हाथों से मुझे मरने के लिये (ोह) लाखों जन्म लेने पड़ते (हरे हरे) परन्तु अपने लिये तो रसोई नहीं की थी वरंच प्रभु के निमित्त करके, और प्रभु ही को भोग लगाया था, इसी से श्रीसीताराम कृपा से इस एक ही जन्म में वह बात सधगई, अर्थात् वे ही लाखों चींटियां सबकी सब रानियां हुई, वही माई मेरी यह माता हुई, मैं पुत्र हुआ, जिन हम दोनों से उन्होंने अपना पलटा इस प्रकार से ले लिया ॥" ___ "प्रभु राखेउ श्रुति नीति अरु, मैं नहिं पाव कलेश ॥" इतना कह,लड़के ने पुनःउस शरीरको छोड़ दिया । उमका दाहक्रिया कर श्रीचित्रकेतुजी मोहरहित हो गए । “यह सब माया कर परिवारा ॥" श्रीनारदजी ने चित्रकेतुजीको संकर्षण भगवान का मन्त्र उपदेश किया, जिससे सातही दिन में श्रीनारदकृपामे चित्रकेतु श्रीसंकर्षण भगवान के । समीप जा पहुँचे। स्तुति कर,श्रीवासुदेव मन्त्र पा, उसके जप से अव्याहत (अप्रतिहत) गति पाई अर्थात् जहां चाहें जावें, रोके न जावें।। एक दिन विमान पर चढ़ श्रीशिवजी के पास पहुँचे वहां सभा में . देखा कि सर्मथमहाप्रभुश्रीशिवजी अपनापाणप्रिया श्रीपार्वती जगत्माता को अपने जंघा पर बिठाये हैं । यह देख मूर्खनावश ("छोटा मुँह बड़ी . वात) वह देव देव महादेव को उपदेश करने लगा ॥ । श्रीगिरिजाजी ने शाप दिया,शापवश"वृत्रासुर" होने पर भी उसको । बान बना रहा । दधीचि राजा की हड्डी के वज्र द्वारा इन्द्र के हाथों से मारा 5 गया । संग्राम में जो विलक्षण वार्ता उसने, सुरेन्द्रजी से कही है, सो श्रीमद्भागवत के छठं स्कन्ध में पढ़ने सुनने ही योग्य है। शरीर त्याग करके उसने पर्मगति पाई ॥ (३०) श्रीउद्धवजी। महात्मा श्रीउद्धवजी को श्रीकृष्ण भगवान अपना अतिसमीपी नातावाले सुहृद जानते थे। आप परम ज्ञानी महाभागवत थे और श्री-