पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१३७

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444440a94 mataHIPenimuantitaramin श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीचन्द्रहासजी ने उनको प्राणदान सुमतिदान के लिये देवीजी से विनय किया और पुनः स्तुति की। "जय महेश भामिनी । अनेक रूप नामिनी, समस्तलोक स्वामिनी, हिमशैल चालिका । सिय पिय पद पद्म प्रेम, तुलसी चह अचलनेम, देहु है प्रसन्न, पाहि प्रणत पालिका ॥" श्रीदेवीमहारानीजी ने साधुता देख, हरिभक्त जान इनकी प्रार्थना स्वीकार की और प्रसन्न हो दोनों को जिलाके उन्हें सुमति भी दी कृपा की जय जय ॥ "सन्त सहहिं दुख परहित लागी॥"* (७७) टीका । कवित्त । (७६६) कखो ऐसो राज, सब देश भक्तराज कखो, ढिग को समाज ताकी बात कहा भाखिये । "हरि हरि" नाम अभिराम धाम धाम सुन, और काम कामना न, सेवा अभिलाखिये ॥ काम, क्रोध, लोभ, मद आदि लेके दुरि किए, जिये नृप पाह, ऐसो नैननि में राखिये। कही जिती बात अादि अन्तलों सुहाति हिये, पदै उठि प्रात फल "जैमिनि" में साखिये ।।६८॥ (५६१) बातिक तिलक । कहते हैं कि श्रीचन्द्रहासजी ने तीन सौ वर्ष राज्य किया और राज्य भी इस प्रकार से कि देश में हरिभक्ति फैला दी, अपने समीपियों की तो वार्ता ही क्या है, घर घर "श्रीसीताराम सीताराम" प्रीति से और मधुर स्वर से सुन लीजिये, किसी को किसी काम की कामना न थी, सब भगवत् सेवा भजन में स्त रहते थे, इसके कहने की आवश्यकता ही क्या कि ऐसा राजा पाकर सव प्रजा चैन से जीवन विताती थी और कहती थी कि ऐसे नृपति को आंखों में रखना चाहिये ॥ चौपाई। "अससिख तुम बिनु देइ न कोज । मातु पिता स्वास्थरत ओऊ ॥ . हेतु रहित. जग युग. उपकारी । हरिसेवक, भरु श्रीमसुरारी ॥

  • वान्छितकल्पतरुभ्यश्य, कृपासिन्धुभ्य एव च।

पतितानां पावनेभ्यश्च, वैष्णवेभ्यो नमोनमः ।।