पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१२२

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rarmine- PermanentineneraNPHEmine II+AruariAnantaramPAIMInterna m a भक्तिसुधास्वाद तिलक । १०३ से खाते जाते थे, इतने में श्रीविदुरजी शाके इस कौतुक को देख अपनी धर्मपत्नी पर बहुत मिझलाए, तव सचेत हो अपने व्यतिक्रम को समझ- के श्रीविदुरानीजी ने अत्यन्त दुःख पाया ॥ दो० अहह ! भइउँ मैं बावरी ! रही न तनु सुधि नेकु । ऐसी सुधि भूली कि नहिं बिलका सार विवेकु ॥ ( ६१ ) टीका । कवित्त । ( ७८२) प्रेम को विचार आपु लागे फल सार दैन, चैन पायो हियो, नारि बड़ी दुखदाई है । वोले रीमि श्याम, तुम कीनो बड़ो काम ऐप स्वाद अभिराम वैसी वस्तु में न पाई है। तिया सकुचाय, कर काटि डारौं हाय, प्राणप्यारे को खवाई छीलि बीलिका न भाई है । हित ही की बातें दोऊ, पार पावै नाहिं कोऊ, नीके के लड़ावै, सोई जाने, यह गाई है ॥५२॥(५७७) वात्तिक तिलक । प्रिय पाठक ! प्रेम के प्रवल प्रभाव को विचार कीजे । विदुरजी अपनी धर्मपत्नी के प्रेम-प्रमाद को विचार के, प्रभु को फल का सारांश खिलाने लगे, तब उनके हृदय में आनंद श्राया, और मन में वे यह कहने लगे कि इसने प्रेम से विक्षिप्त होके यह दुःखप्रद कार्य किया। __ श्यामसुन्दरजी ने प्रसन्न होके कहा कि “आपने काम तो बहुत अच्छा किया कि केलों का सारांश खिलाया, परन्तु न जाने क्या कारण है कि जैसा उन छिलकाओं में अत्यन्त सुन्दर स्वाद मुझे मिलता था वैसा इस सारांश में नहीं प्राप्त हुआ। श्लो० पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्या प्रयच्छति । - तदहं भक्यु पहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।। अभी, अभी, दुर्योधन के घर अनेक षटरस व्यंजनादि का त्याग किये हुए चला आता हूँ। । उधर श्रीविदुरानीजी अतिशय संकोच को पाके पश्चात्ताप करने लगी कि, "हाय ! मैं तो इन हाथों को काट डालूँ, जिन हाथों से प्राणप्रिय को छिलके खिलाए। लालन को छिलके कैसे प्रिय लगे होंगे ?"