पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/११७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

९८ MaspuMAHARAMMEPRANAMMAnemuthuMunitHANE ....................श्रीभक्तमाल सटीक । सेवा सुख के अनुभव से अति प्रसन्नतावक चली आई, जिसमें किसी को लखाई न पड़े । तो अब इसमें सेवा करनेवाली कौन रानी कही जावे ? तदनन्तर श्रीभक्तराजाजी ने, आके देखा कि बाह्य कैंकर्य (पार्षद चौका) कोई कर गया है। इससे उनको ऐसी चंचलता हुई कि उनके मनरूपी नेत्र में स्थिरता का निमेष भी नहीं लगता था। विचारने लगे कि यह कौन चतुर चोराके मेरी सेवासम्पत्ति चुरा ले गया ? ॥ ___ इस प्रकार तीन दिन पर्यन्त देखा: चौथे दिन उसी समय परम प्रवीण राजा छिपके बैठे, और देख के भक्तिवती रानी को पहिचान के कहा कि “जो तुम्हारे मन में ऐसी ही सेवा की उत्कंठा और भक्ति है तो अपने मनभावन को अपने निज भवन में ही क्यों नहीं पधरा लेती हो ? जिसमें तुम्हारे ही सीस पर सेवा सुख भार रहे। सलोक० “पुस्तक, माला, मसनो, बसनो। ठाकुर वटुथा, अपनो अपनो॥" (५६) टीका । कवित्त । (७८७) लई बात मानि, मानो मन्त्र लै सुनायो कान, होत ही विहान, सेवा नीकी पधराई है। करति सिंगार, फिर आपुही निहारि रहै, लहै नहीं पार, हग झरी सी लगाई है। भई बढ़वार, राग भोग सो अपार भाव, भक्ति विस्तार रीति पुरी सब छाई है। नृपहू सुनत अब लागि चोप देखिबे की,आए ततकाल मति अति अकुलाई है ॥४७॥ (५८२) वात्तिक तिलक । श्रीभक्तराज के स्वच्छ अंतःकरण से प्रीतियुक्त निकले हुए ऐसे अनुपम वचन सुनते ही प्रेममूर्ति रानी ने महामुदित मन में इस प्रकार मान लिया कि मानो गुरुमन्त्र ही कान में सुना दिया गया है। प्रातः काल होते ही उनने भगवत के दिव्य अर्चा विग्रह नीके प्रकार से उत्सवपूर्वक विराजमान किया। चौपाई। जाकर जापर सत्य सनेह । सो तेहि मिले न कछु सन्देहू ।। फिर अब क्या कहना है, अपने हाथों से सप्रेम शृङ्गार करके पुनि