पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/१११

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९२ + + + ++ ++ + + + श्रीभक्तमाच सटीक। जी ने कहा कि स्नान कर पा तो भोजन करें। इतना कह स्नान को गए। परन्तु उस दिन दादशी दो ही दण्ड थी ! राजा ने विचार किया कि त्रयोदशी में पारण करने से शाम्राज्ञा उल्लेषित होगी। तब ब्राह्मणों ने कहा कि चरणामृत पी लीजिये ।। ऐसा ही किया। दुर्वासाजी पाए और अनुमान से जाना कि इन्होंने जल पिया है । फिर अत्यन्त क्रोध करके अपने जग को भूमि में पटक के महाविकराल "कालकृत्य" उत्पन्न करके उससे कहा कि इस राना को भस्म कर दें" इतने पर भी श्रीअम्बरीषजी हाथ जोड़े, दुर्वासा की प्रसन्नता के अभिलाष में खड़े ही रहे। "श्रीसुदर्शचक्रजी जो श्रीप्रभु की आज्ञा- नुसार राजा की रक्षार्थ सदा समीप ही रहते थे, उनने दुर्वासा के दुखदाई क्रोध से दुखित हो के उस कालाग्नि कृत्या को अपने तेज से जलाके राख कर दी। भौर ब्राह्मण की मोर भी चले, यह देख दुर्वासाजीभागे और चक्रतेज से अत्यन्त विकल हुए, कि जैसा श्रीमद्भागवत में लिखा ही है। (४९ ) टीका । कवित्त । (७९४ ) भाज्यो दिशा दिशा सब लोक लोकपाल पास गये, नयो तेजचक्र चून किये डारे हैं । ब्रह्मा शिव कही यह गही तुम टेव बुरी, दासन को भेद नहीं जान्यो, बेद धारे हैं ।। पहुँचे बैकुंठ जाय, कह्यो दुःख अकुलाय, हाय हाय राखौ प्रभु ! खरौ तन जारे हैं। "मैं तो हौं अधीन, तीनगुण को न मान मेरे भक्तवात्सल्य गुण' सवही को टारे हैं"।। ४०॥ (५८९) वात्तिक तिलक। ऋषिजी श्रीचक्र के भय से भागे हुए चारों दिशाओं, तथा चारों विदि- शाओं को और सब लोकों में गए, और लोकपालों के पास अर्थात् इन्द्र, वरुण, कुवेर, यम के पास जाके, उनने शरड़ शरण पुकारा, परन्तु चक का प्रतिक्षण बढ़ता हुआ तेज दुर्वासाजी को यों जला के चूनासा क्रिये डालताथा जैसे अग्नि कंकण पत्थर को । जब श्रीब्रह्माजी एवं श्रीशिवनी के लोक में वह पहुंचे, तब भाप दोनों ने कहा कि "दुर्वासानी । तुमने यह बड़ी निकम्मी टवे पकड़ी है कि भगवद्भक्तों का भेव (भेद, मर्म) न