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श्यामास्वप्न

हो . मैं उनकी ओर सहज भाव से देखने लगी . वे नीचे मस्तक किए कुछ गुनगुनाते थे . कभी ऊपर देख कुछ लिख लेते और फिर कुछ सोचने लगते-मैं तो उनके स्वभाव को भली भाँति जानती थी—मैंने जान लिया कि वे कुछ कविता करते होंगे. एक बेर और मैंने उनको भली भाँति देखा और अचांचक उनकी भी दृष्टि मेरे ऊपर पड़ी . वे मेरी ओर एक टक देखने लगे और मैं भी अनिमिष नैनों से उन्हें निहारती रही .

"भए बिलोचन चारु अचंचल ।
मनहु सकुचि निमि तज्यो दृगंचल ॥"

यद्यपि मैं उन्हें प्रतिदिन देखती थी तो भी उस दिन उनके मुखार- विंद की कुछ और शोभा रही मैंने भी उनके निहारने से जान लिया कि वे भी आज मुझे किसी और भाव से देख रहे हैं . तो भी मेरा जी विश्वस्त था . मैं उनके स्वभाव को जानती थी और परिचित भी थी . मैंने और कोई चेष्टा नैन या कर से नहीं की, स्तब्ध सी वहीं खड़ी रही, पर हृदय में उस समय अनेक प्रकार के भाव आए, कुछ लज्जा भी हुई दृष्टि नीचे कर ली . फिर सिर उठाकर उसी जगन्मोहन को देखा . उनको देखकर मुसकिराई . वे भी मेरे हृदय के भाव अपने हृदय में गुन मुसकिरा गए. मेरी बहिने सत्यवती और सुशीला यद्यपि मेरे साथ वहीं थीं पर कुछ न समझ सकी-हाँ, वृंदा जब आई मेरी तन की बुरी दशा देख पूछने लगी.

"श्यामा -आज तेरे शरीर की यह दशा कैसी हो गई . तू तो कभी इतना बिलंब अटा पै नहीं करती थी आज क्या हो गया देख मुझसे मत छिपावै , मैं सब अंत में जान ही जाऊँगी"-इतना कह उसने मेरी ओर देख श्यामसुंदर की ओर देखा .

"कुछ तो नहीं-मेरी क्या गति होगी . जो गति रोज की सोई