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अथ दूसरे याम का स्वप्न

कवित्त

आनँद सहित कृष्णचंद्र द्वारका के बीच
रुकमिनी जू के महल पर जागे हैं सोय
सपने में देखो व्रजराज ब्रजवासिन. के
घर घर हाय ब्रजराज को विलाप होय
ख्वाब में मिलाप बाढ़ो मदन को दाब बोधा
परम प्रलाप हरि हिय में न सके गोय
हाय नंद बाबा हाय मैया हाय मधुबन
हाय व्रजवासी हाय राधे कहि दीन्हो रोय .

ग्रीष्म की रातें कैसी सुखद होती हैं—पर सुख का समय बात की बात में कट जाता है . चाँदनी खिली थी तारे छिटके थे, दूसरा पहर रात का लग गया था मैं अपनी अकेली सेज पर बाहु का उपधान किए श्यामा का ध्यान लगाकर मग्न था, इतने ही में कोई पहरे- सोता था वाला गा उठा.

अहो अहो वन के रुख कहूँ देख्यो पिय प्यारे ।
मेरो हाथ छुड़ाय कही वह कितै सिधारो॥

उस ध्यान से विलग हो गया-फिर भी वही मोहिनी मूरति सामने दिखाई दी. मैं तो उसे देखते ही भूमि पर गिर पड़ा था संज्ञा हुई सेवक ने धीरज धराया . मुझे बहुत समझा बुझा कर अपने आप में लाया और बोला-