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संकेतहिं में बाल गर वे दिन अब भारी।
मुख में उलका लए फिरति हैं कुशिवा कारी।
इत उत आमिष हेतु राज पथ उजर निहारी।
सूल हूल सम होय हिये में बहु बहु वारी॥

रघुवंश के सोलहवें सर्ग में अयोध्या की जिस दुर्गति का वर्णन कालिदास ने किया है उन्हीं के शब्दों में जगमोहन सिंह ने भी विजयराघव गढ़ की दुर्दशा का चित्र खींचा है। ऊपर की कुंडलिया पढ़कर बरबस कालिदास का यह श्लोक स्मरण आ जाता है :

निशासु भास्वत्कल नू पुराणां यः संचरोऽभूदभिसारिकाणाम्।
नंदन्मुखोल्काविचितामिषाभिः स वाह्यते राजपथः शिवाभिः।

विजयराघव गढ़ की इस दुर्दशा का कारण दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है। ठाकुर जगमोहन सिंह के प्रपितामह कछवाहा क्षत्रिय ठाकुर दुर्जन सिंह के दो पुत्रों-विष्णुसिंह और प्रयागदास—में पिता की मृत्यु के पश्चात् सन् १८२६ में जागीर के लिए झगड़ा हो गया 'और ईस्ट इंडिया कंपनी ने जागीर के दो भाग कर दोनों भाइयों को एक एक भाग दे दिया । बड़े भाई विष्णुसिंह को मैहर राज्य मिला और छोटे भाई प्रयागदास ने अपने भाग में एक दुर्ग बनवाकर उसमें एक मंदिर विजयराघव का स्थापित किया और इस प्रकार विजयराघव गढ़ की स्थापना की । पड़ोसी बघेलों से झगड़ा होने पर उनके कई इलाके जीतकर और बुंदेलखंड के उपद्रवों में ईस्ट इंडिया कंपनी की सहायता कर पुरस्कार रूप में कुछ भूखंड प्राप्त कर प्रयागदास ने अपने राज्य की अच्छी वृद्धि की । सन् १९४६ में प्रयागदास की मृत्यु के समय उनके इकलौते पुत्र सरयूप्रसाद सिंह की अवस्था केवल पाँच वर्षों की थी । प्रयाग-दासने पुत्र की अल्पावस्था के कारण अपना इलाका कोर्ट आव वार्ड्स के अधीन कर दिया था जिससे वहाँ का प्रबंध एक सरकारी मैनेजर के हाथ