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श्यामास्वप्न

प्रकृतिमुखरा चंचला च द्वितीया" पर क्या हम ऐसी बातें उस देवी के विषय में कह सक्ते हैं--नहीं नहीं भाई-वह तो हमारी पूज्य है तौ भी सच्ची बात के कहने में क्या डर, "सत्यमेव जयते नानृतम्" साँच को आंच कहाँ . बस, अब युक्ति सोचने बैठे कि कौनसी युक्ति करें जिसमें उस अलक्ष्य देवी के दर्शन फिर भी हों और कुछ बातचीत करें. सोचते सोचते एक बात याद पड़ी पर लिखेंगे नहीं, लिखने की कौन बात कहेंगे भी नहीं . उसी युक्ति से फिर आँख मूदीं और क्षण भर ध्यान किया तो फिर भी उसी के सामने पहुंच गए वही मूर्ति फिर भी नैनों के सामने नाचने लगी. ऊमर के फूल सरीखे दर्शन हुए, उसकी सुंदरता देखते ही मेरी इन्द्रियां शिथिल पड़ गईं, पलक झपने लगी , हाथ पैर ढीले पड़ गए मैं तो जक गया . उसी समय मूर्छित हो गिरा जाता था और भूमि ले लेता यदि मेरा एक हितकारी सेवक मुझे अपना सहारा न देता , उसके कंधे पर अपना सिर डाल कर बैठ गया . आंखें मुकुलित हो गई, तन की सब सुधि बुधि जाती रही • गुलाब जल के अनेक छीटे मीठे मीठे मेरे मुख पर सींचे. धीरे धीरे संज्ञा आई . नेत्र आधे खुले, साँस बहुरी, सिर उठा कर देखा प्रणाम मन ही में किया . हृदय में हाथ जोड़े, इच्छा हुई कि कुछ बोले और अपना जी खोले या कहीं को डोले सेवक ने सहारा दिया . बल पूर्वक इंद्रियों को सम्हार सरस्वती को मनाय वचन की शक्ति को तोल बोलने लगा .

'भगवति तेरे चरणकमलों को प्रणाम है', इसको सुन भगवती मौन हो रही मैं ने फिर भी कहा--

"नारायणि प्रणाम करता हूँ, भला इस दीन दास की ओर तनिक तो दया की कोर करो"-

. देवी ने देखा, ऐसी दृष्टि की (कि) मानो सेतकमल की श्रेणी बरसाईं हो . केवल दृष्टि मात्र से मेरा प्रणाम ग्रहण किया और अपनी पूर्वोक्त सखियों की ओर निहारी , सखीं सब मुसकिराकर रह गईं . मैं और अचंभे में हो