भार से भी लचती थी (१) ऐसी पतरी जौ मुठी में भी आ जाती थी. कई तो उसे देख भ्रम में पड़े थे कि लंक है या नहीं या केवल अंक ही का शंक है. नवजोबन नरेश के प्रवेश होते ही अंग के सिपाहियों ने बड़ी लूट मार मचाई इसी भौंसे में सभों के हौंसे रह गए किसी ने पाये किसी ने नितम्ब बिम्ब-पर यह न जान पड़ा कि बीच में कटि किसने लूट ली. लंक के लूटने की शंका केवल कुच और नितम्बों की थी क्योंकि जोबन महीप ने जब इस द्वीप पर अमल किया तब डंका बजा कर क्रम से केवल ये ही बढ़े. सुंदर वर्तुलाकार जाधैं कनककदली के खंभों की नाईं राजती थीं मानो किसी ने उलटे स्तंभ लगा दिए हों . की शुंड भी गुड़ी मार कर उसके पेट तरे छिप जाती थी . कालिदास को भी कोई उपमा नहीं मिली, तभी तो उनने कहा है।
नागेन्द्रहस्तास्त्वचि कर्कशत्वात्
एकान्त शैत्यात्कदलीविशेषाः।
लब्ध्वापि लोके परिणाहि रूपं
जातास्तदूर्वोरुपमानवाह्याः ॥
इसकी गति के अनुसारी राजहंस भी मानस सरोवर को उड़ गए, इसके चरणसरोरुह ऐसे शोभित थे मानो स्थलारविंद हों. नखों की छटा ऐसी थी मानो सूर्य की किरणों से पंकज खिला हो . जहाँ जहाँ यह अपने चरनों को धरती ऐसा जान पड़ता कि ईंगुर वगर गया है . यह सर्वांगसुंदरी नख से सिख तक एक साँचे कैसी ढरी चित्र की छबि सी प्रकट थी. अथवा किसी ने जैसे मणि की पुतरी बनाकर गौर उपलों के पर्वत पर धर दिया हो. केशों में जिसके विचित्र विचित्र सुमन खचित थे, माँग में मोती की लर, अलकों के अंत में चमेली के फूल, जुड़े पर शीश- फूल के स्थान में गुलाब--
१ चलिहै क्यों चंदमुखी कुचन के भार भये,
कचन के भार तो लचक लंक जाती है।