इसी समय द्वार खुल गया और एक अधिकारी हाथ में दीप लिये आ गया
उसने कहा 'हे युवा मैं तुझको प्रधान न्यायाधीश के सन्मुख ले जाने आया हूँ; वे थोड़े काल में अभी धर्मासन पर बैठेंगे."
जैसे तिजारी आवे इस युवा का बदन कंपने लगा बोला “एक क्षणभर ठहरिये और मुझे अपने अंतकाल की दशा सोचने को तीन काष्ठा का अवकाश दीजिर".
अधिकारी ने कहा “जिले बहुत घंटे नहीं जीना है उसकी प्रार्थना कभी नहीं टालूंगा" इतना कह उसने प्रकाश वहीं धर दिया और चला गया. युवा फिर एकांत में विचारने लगा “जिसे बहुत घंटे नहीं जीना है ! फिर मेरा भाग्य निश्चय ऐसे ही होगा . जेलर ने ठीक कहा था" इस समय फिर भी उसको उसी प्रेत का स्मरण आया और कई बार घृणां की.
वह अधिकारी फिर आया और बोला “समय तो हो गया चलो चलें". युवा ने विपादपूर्वक प्रार्थना की “भाई दो पल और ठहर देख हाथ जोड़ता हूँ--दो पल कुछ बड़ा समय नहीं है, चुटकी मारते जाता है . मुझे केवल भ्रमती हुई मनोवृत्ति को एकत्र करने दे." उसने कहा “मैं तेरे लिये अपने को न्यायाधीश के क्रोधाग्नि में डालता हूँ इधर तेरी भी प्रार्थना टाल नहीं सक्ता" इतना कह वह अधिकारी फिर चला गया इतने में सूर्य की किर्ने बड़े कष्ट से भीतर आई वह युवा उन्मत्त की भांति इधर उधर चलता हुवा सोचने लगा “हाय ! नहीं नहीं मैं इस यौवन में कैसे प्राग हूँ और सब प्रिय पदार्थ कैसे पीछे छोड़ जाऊँ-प्यारी हम लोग फिर मिलेंगे और अपने प्रेम का कोप तेरे चरणारविंदों की भेंट दूंगा तेरे पिता और दुष्ट न्यायाधीश से अपना बैर भंजा लूंगा-मेरे भाग्य में यही लिखा है “मेटन हितु सामर्थ को लिखे भाल के अंक"- हां हां मैं केवल तेरे प्रेम और बैर लेने को अभी जीऊँगा ."