पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/३९

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माधुरी-हाँ ऐसा होना भी तो उचित ही है । पर दोनों ओर से कुछ गुरुजन की सम्मति होनी अवश्य है।

( रति कुसुमायुध-ले० लाल खड्गबहादुर मल्ल पहली बार १८८५ खङ्गविलास प्रेस बाँकीपुर से प्रकाशित पृ० १४)

और भी उसी ग्रंथ के पृ० ४१ पर रति अपनी सखियों से कहती है :

सखी ! वर्तमान समय के कई एक मूर्ख माता पिता जान-बूझकर पुत्र पुत्री को नष्ट करते हैं । यद्यपि स्त्रियों के लिए परम धर्म है उसका पति, चाहे कैसी ही कुरूप, निर्धन, मूर्ख, कुष्ठ रोगी, बाल वा वृद्ध हो, उसे ईश्वर तुल्य जानना और उसी की सेवा को सर्वोपरि समझना चाहिए। पर इससे यह अर्थ नहीं है कि अवश्य अयोग्य ही विवाह किए जायँ, और केवल किसी मूर्ख ब्राह्मण से जन्मपत्री दिखा लेने पर भरोसा कर लिया जाय । वरन पूर्वोक्त धर्म का निर्वाह तभी हो सकता है जब युवा होने पर परस्पर प्रेम बश ब्याह हुआ करे ।

अस्तु, विवाह में प्रेम का महत्त्व बढ़ता ही जा रहा था। भारतेन्दु युग से पूर्व भी प्रेमी कवियों ने स्वच्छंद. प्रेम की जय-घोषणा की है, परंतु उसके संबंध में इस प्रकार तर्क और प्रमाण उपस्थित कर पुष्ट करने की प्रवृत्ति पहले नहीं थी; भारतेन्दु युग में ही पहले दिखाई पड़ी और 'श्यामास्वप्न' में भी इस स्वच्छंद प्रेम का समर्थन किया गया है।

सब मिलाकर ठाकुर जगमोहन सिंह का 'श्यामास्वप्न' भारतेन्दु युग की एक विशिष्ट रचना है। एक ओर इसमें रीतिकालीन वातावरण, भाषा और भाव का सुंदर प्रतिनिधित्व है दूसरी ओर इसमें आधुनिक युग की आधुनिकता -गद्य का प्राधान्य और विद्रोह के त्वर–के भी दर्शन होते हैं। यह सच है कि इस रचना को गद्य की अपेक्षा काव्य कहना ही अधिक समीचीन है फिर भी इसमें गद्य लिखने की ओर प्रवृत्ति तो है ही। स्वच्छंद प्रेम की इसमें उत्कृष्ट व्यंजना हुई है और प्रेम का