पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/२७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( २४ )

कलकत्ते वाले सार सुधानिधि साप्ताहिक पत्र में सलोमन कम्पनी चश्मेवाले का विज्ञापन छपता है उसकी हाट से एक अच्छा और बढ़िया चश्मा मँगवा कर नाक पर रखो.

और इसी आधार पर कल्पना का सहारा लेकर कवि स्वप्न में वर्णन करता है :

स्टेशन . तो हैमिल्टन साहब की दूकान था. बाहरे ईश्वर ! मनोरथ पूरा हुआ. चश्मा मिलने की आस लगी. दूकान पर उतरे. एक गोरी थोरी वैसवाली निकल आई. इस गोरी के पीछे एक पुछ भी थी. मैंने तो ऐसी स्त्री कभी नहीं देखी थी. मुख मनोहर और वदन मदन का सदन था. इस कामिनी के कुच कलशों पर दो बंदर नाचते थे, इनके नाम दंभाधिकारी और पांखड थे. इन बंदरों के ( की ) पूछ से कपट और घात नाम के दो बच्चे और लटकते थे. मैंने ऐसी लीला कभी नहीं देखो थी. करम ठोका आश्चर्य किया. साहस कर दूकान के भीतर जा पूछने लगा "गोरी तेरी दूकान में एक जोड़ चश्मा मिलैगा ? उसने त्यूरीचढ़ा के उत्तर दिया "मूर्ख द्वापर और त्रेता में कभी चश्मा था भी कि तू माँगता है . तब सभी लोगों की दृष्टि अविकार रहती थी . यह तो कलियुग में जब लोग आँख रहते भी अंधे होने लगे तब चश्मा भी किसी महापुरुष ने चला दिया , मुझे नहीं जानता मैं पाखंडप्रिया अभी श्वेत द्वीप से चली आती हूँ, मैं फणीश की बहन हूँ, देख बिना चश्मा के तू देख लेगा कि मैं कैसी हूँ और मेरा रूप कैसा आश्चर्यमय है .” इत्यादि (पृ० ११४-११५)

उन्नीसवीं शताब्दी में पाश्चात्य वैज्ञानिकों के वैज्ञानिक आविष्कारों ने जनता को चकित कर रखा था और साथ ही अँगरेजी दूकानों पर बेचनेवाली सुसज्जित अँगरेज महिलाएँ भी उस युग की जनता के लिए कुछ कम कुतूहलजनक नहीं थीं। इसी आश्चर्य और कुतूहल