कहूँ केहि ओट विलोल विलोचन कैसे रहै छनहू रमनीय।
बिना जगमोहन फीके भए घर बाहर और सहाय न हीय॥७५॥
जा दिन ओट परै तनिको कनिको मन घीर धरै न धरैहूँ।
कै लिख चित्र वियोग के पत्र बिताय पवित्र सुद्यौसहु कैहूँ॥
कै दृग लाय लखै सुइ मारग प्रेम को पारग जाय जबैहूँ।
कै जगमोहन की बतियाँ छतियाँ भरिकै रतियाँ सुनि मैहूँ॥७६॥
अब कौन रह्यौ मुहि धीर धरावतो को लिखि है रस की पतियाँ।
“सब कारज धीरज में निबहै निबहै नहिं धीर बिना छतियाँ॥
फलि है कुसमै नहिं कोटि करो तरु केतिक नीर सिचौ रतियाँ’।
जगमोहन वे सपने सी भई सु गई तुअ नेह भरीं बतियाँ॥७७॥
बार सवारन मिसि कियो कर पंकज सों सैन।
नदी घाट की बाट को सुघर सहेट सचैन॥७८॥
पिय भेजी बीरी बनी दाडिम दसनि अनार।
तिन सनमुख श्यामा लई को सुख बरनन हार॥७९॥
हम तुम मेला के दिवस ठेला सों डरि एकु।
चढ़े अटारी पै अहो प्यारी सुधि करु नेकु॥८०॥
जदपि भीर इतनी तऊ नागर नेह छिपै न।
तोही सो अरुझे खरे कंपस* से जुग नैन॥८१॥
मुख मयंक पर नथ लसै मनहु इंदु परिवेष।
जगत विजय को सगुन मनु मदन जोतिषी लेष॥८२॥
मुख मयंक मघि अंक मनु माता अंक लखाय।
कै छाया मृग नैन की उदर तासु बिलसाय॥७३॥
- ‘कम्पस’ एक यंत्र होता है, जिसकी सूजी सदा उत्तर ही की ओर रहती हैं कंपस अंगरेजी शब्द है।