जलदपटल ते विलग मनु मंगल शशि इक काल ॥२६॥
गोरी तेरे मुख लस दाग सीतला केर।
मनहुँ चंद्रमा ने रच्यो चंदन बँद की ढेर ॥३०॥
जो रस तुअ अधरान में सो रसना न बखान ।
रस ना रसना और में ताते रसना जान ॥३१॥
कहा कहों गोरी सुनो नदिया नाव संयोग ।
विंध्यकीर सिंदूरगिरि तीर सारिका भोग ॥२३॥
हम पंछी अति दूर के दूर हमारो देश ।
तुम सिंदूर सी सारिका सुंदर सोभित बेश ॥३३॥
गयो कीर उड़ि पान नग गई सारिका अंत ।
रतन भमि गिरि के निकट सह्यौ कलेस अनंत ॥३४॥
कीर धीर कैसे करे जाके पीर शरीर ।
पर उखारि पिंजरन जकरि लैगो व्याध सुवीर ॥३५॥
सावन के भावन जलद भूखो बाज झपेट ।
गहि चोंचन हिंसक अरी मैना लई लपेट ॥३६॥
इत बिछुरे कीरहु सुजन उत मैना बिछुरीह ।
मैना बस अपने रह्यौं नैना लख्यो न जीह ॥३७॥
सवैया
यह तीर मनोहर नीर सुहावनो
बीर बिना तु नीको गहै।
चहुँ धीर समीर जनावत पीर
भुजंगम मैर सरीर दहै।
अब गुंजत नाहि मिलिंद के पुंज
निकुंज में मंजुलता न रहै ।
जगमोहन हाय परे तन पिजर
प्रान विहंग उड़ायो चहै ॥३८॥