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श्यामास्वप्न

श्यामानंद ब्रह्मचारी जू आचारज अरु व्यासा।
श्यामालता-सुमन के सुंदर प्रियमकरंद विलासा॥
ऋषि वज्रांग बीज मधुकर सो छंद मंद नहिं सोहै।
श्यामाशक्ति श्यामसुंदर जू कीलक सबथल मोहे॥
बहुत ठौर उनमत्त काव्य रचि जाको अर्थ कठोरा।
समुझि जात नहिं कहूँ भातिन संज्ञा शब्द अथोरा॥
सपनो याहि जानि मुँहिं छमियो बिनवत हौं कर जोरी।
पिंगल छंद अगाध कहाँ मम उथली सी मति मोरी॥

॥ इति श्यामास्वप्नः समाप्तः ॥