पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१९८

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९५८
श्यामास्वप्न

चंडी बोली "देखो श्यामसुंदर के कष्ट दूर हुए एक दिन न एक दिन श्यामा भी मिलेगी इसको गाँठ से बाँधे रहना पर अब आँख बंद कर श्यामसुंदर को देखना चाहता है तो देख ले."

मैंने अपने नैन ज्यौंही बंद किए वही शिखर वही सभा सब नृत्य हर्ष में लगी है. फिर भी एक बार भगवान् के दर्शन हुए . अहो- भाग्य ! क्या अपूर्व झाँकी थी. रामचंद्र के सामने श्यामसुंदर दीन मलीन बना खाकी कुरती पहने सिर खोले बकुल माला की सेल्ही डाले बाघंबर ओढ़े हाथ जोड़े बिरही बना भगवान की स्तुति जन्माष्टमी के उत्सव में कर रहा था . वह दीन की स्तुति यह थी,

छप्पै

तुम जनमें जौं अाजु मोहि कह दियो गुसाई ।
छिति छायौ अानंद जगत बजि रही बधाई ।।
जौन दुक्ख मम दरयौ कौन पुरुषारथ तेरो।
पुरुषोत्तम कहवाय ओर मम लख्यो न हेरो ।।
दुखित धरनि लखि श्यामघन जड़ पावस बरसत अवहि ।
पै न द्रवे तुम नाथ जौ दयानाथ सौ नाम लहि ।।१।।
कौन सुजस तु नाथ गाइहौं सो किन भाखो ।
मेरी ओर न करी दया की कोर जु साखो ।
तुमने अपने नाँव सरिस गुन कौन दिखाए ।
कौन भरोसे भारत दुख दारत कहवाए ॥
सो न अाजु कहि देहु घनश्याम दुःख दूरी करन ।
करि करिपा अब हेरिए दीनभक्त जोरे करन ॥२॥
तुम सर्वज्ञ कहाय जौ न मम पीरहिं जोई ।
तौ झूठे सब नाम तिहारे जगतल होई ॥
एक प्रेम अवलंब तुमहिं मूरति जु प्रेमकर ।
गावत श्रुति व्यासादि भक्त प्रन रोपि रोपि धर ।।