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परंतु 'श्यामास्वप्न' में यथार्थवादी प्रवृत्ति का पूर्ण अभाव पाया जाता है। समर्पण में स्वयं लेखक ने लिखा है :

रात्रि के चार प्रहर होते हैं-इस स्वप्न में भी चार प्रहर के चार स्वप्न हैं, जगत् स्वप्नवत् है तो यह भी स्वप्न ही है, मेरे लेख तो प्रत्यक्ष भी स्वप्न हैं—पर मेरा श्यामास्वप्न स्वप्न ही है:

इस स्वप्न में स्वप्न जैसी ही बातें हैं । उपन्यास के प्रधान तीनपात्रों- कमलाकांत, श्यामा और श्यामसुंदर-में कमलाकांत और श्यामसुंदर दोनों ही श्यामा के प्रेमी हैं और आदर्श प्रेमी हैं। कमलाकांत श्यामा के प्रेम के पीछे ही स्वयं अपने को डाइन के समर्पित कर देता है परंतु श्यामा के मुख से श्यामा - यामसुंदर की प्रणय-कथा सुनकर वह इतना प्रभावित हो उठता है कि जब चंडी उससे कहती है :

मैं तेरी भक्ति पर प्रसन्न हुई-वर मांग-

तब वह निस्संशय भाव से कहता है:

यदि तू प्रसन्न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर---श्यामसुंदर का पता बता दे और श्यामसुदर को श्यामा से मिला दें: (पृ० १५७)

कैसा अपूर्व यह आत्मत्याग है! श्यामसुंदर का प्रेम भी इसी प्रकार आदर्श है । स्वयं श्यामा ने कमलाकांत से स्वीकार किया था:

वे अपने प्रान को भी इतना नहीं चाहते थे. नैनों की तारा में ही थी, प्रेम-पिंजर की उनकी मैं ही सारिका थी. ब्रह्म, ईश्वर, राम जो कुछ थी मैं थी, वे मुझे अनन्य भाव से मानते थे. ( पृ० ७०)

श्यामसुंदर श्यामा को इष्ट देवता के रूप में ही मानता था । कमलाकांत ने चंडी के प्रभाव से श्यामसुंदर को रामचंद्र के सामने 'दीन मलीन बना खाकी कुरती पहने सिर खोले बकुल माला की सेल्ही डाले बाघम्बर ओढ़े हाथ जोड़े बिरही बना' भगवान की इस प्रकार स्तुति करते देखा था :