अथ चौथे याम को स्वप्न
"थाकी गति अंगन की मति पर गई मंद
सूख झांझरी सी है कै देह लागी पियरान,
बावरी सी बुद्धि भई हँसी काहू छीन लई
सुख के समाज जित तित लागे दूर जान;
हरीचंद रावरे विरह जग दुखमयो
भयो कछू और होनहार लागे दिखरान,
नैन कुम्हिलान लागे बैनहु अथान लागे
आयो प्राननाथ अब प्रान लागे मुरझान."
चौथा पहर रात्रि का लगा; यह धर्म का पहरा था . स्वम की डोर अभी तक नहीं टूटी तो भी क्या का क्या हो गया . अब भोर होने लगा . तमचोर बोल उठा, मोर भी रोर करने लगा . मंद मंद वायु चलता था मैं तो घोर निद्रा में मग्न था . भैरवी रागिनी सज के आ गई . गैवैयों की छेड़ छाड़ मची. धर्म की बेल फिर भी लहलहानी . चकई की कहानी पूरी भई . प्यारे चकवा से पंख फटकार और परों को चोंच से निरुवार चली मिलने . संयोगियों को काल सी प्राची दिशा दिखानी (दिखने) लगी.
वा चकई को भयो चित चीतो चीतोति चहू दिसि चाव सों नाची,
8 गई छीन कलाधर की कला जामिनि जोति मनों जम जाँची,
बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपति काची,
लोहू पियो जो वियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची,
खंडिता भी अपने अपने चिर बिछुरे प्रियतमों से मिल प्रसन्न हुई,