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स्यामाश्वप्न

बाँह गहे की लाज तो, करियो तनिक विचारि ।
तिन सी तोरी प्रीति क्यौं, काहे दियो बिसारि ॥

"तलफत प्रान तुम सामरे सुजान बिना

कानन को बंसी फेर अायकै सुनाय जाहु,

चाहत चलन जीय तासो हौं कहत पीय

दया करि केहूँ फेरि मुख दिखराय जाहु;

रहि नहिं जाय हाय हिय हरिचंद हौस

विनवत तासौ व्रज और नेकु श्राप जाहु,

कसक मिटाय निज नेहहिं निभाय हा हा

एक बेर प्यारे श्राय कंठ लपिटाय जाहु.

इति तीसरे जाम का स्वप्न.

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