होती इक श्रास ना प्रबल जगमोहन जू ,
तौ तौ पौन पावक है तन मुरझावतो ॥"
मैं श्यामसुंदर का विलाप और अकथ कहानी सुन बोला "भाई तुमने तो ऐसा वृत्त सुनाया जिसे मैं आजीवन नहीं भूलने का. तुम्हारे प्रेम के साखे चलेंगे, तुम्हारी प्रीति की अकथ कहानी इस लोक और परलोक तक कही और सुनी जायगी, मेरा हृदय पिघल के नवनीत हो गया, मेरे नेत्र सजल हो गए मैं तुम्हारे दुःख में दुखी हो गया . जो आज्ञा हो वह करूँ. कौन उपाय तुम्हारे फिर समागम के किए जायं . किस उपाय से श्यामा प्यारी के दरशन हों . किस रीति से उसकी उपलब्धि होगी, हायरे करुणावरुणालय ! तुझे हमारे प्रिय श्यामसुंदर की दशा पर तनिक दया नहीं आई . हा दैव ! तूने क्या करके क्या कर दिया . क्या तुझे किसी का समागम नहीं भाता ? तभी तो कोई (किसी) ने कहा है-
"मेल उन्हैं भाव नहीं हैं सबसे प्रतिकूल ।
घूणन्याय सों मेल हू करत होत हिय सूल ॥"
हायरे विधना ! क्या तेरे ऐसे ही गुण हैं ? तुझै ऐसी ऐसी बातें कह किसने किसने न कोसा होगा-पर तुझै लाज नहीं-सकुच नहीं- कपटी, कुटिल और दूसरों के दुःखों में सुखी होने वाला है . मुँह छिपाकर उसी सागर में क्यों नहीं बिला जाता जहाँ से निकला था . ऐसे ऐसे कर्म और तिस्पर भी लोगों के बीच में चार चार मुख खोल कर दिखलाना . तुमसा भी निर्लज्ज कम होगा. इस लोक में तो कोई बोध न हुआ पर उस लोक में सिवा तेरे और कोई नहीं है . दुष्ट ! दुःशील ! शील दावानल ! दुश्शासन ! पापी ! पापात्मन् ! पापकर्मा ! अधर्मी ! निर्लज्ज ! निर्दयी कपटी ! संयोग-कपाट ! वियोगशाली ! विपत्ति कल्पतरु ! संपत्तिकाननकुठार ! क्यों इतने दुर्वचन सहते हो?