पृष्ठ:श्यामास्वप्न.djvu/१७०

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३०
श्यामास्वप्न

कर्मों से कुछ प्रयोजन नहीं जब पुरुष प्रकृति से विलग होता है तभी मुक्ति है और पुनर्जन्म तभी बंद होगा-अब अधिक सुनोगे तो पूरे योगी ही हो जावोगे

ज्ञान सूझ रहा है, क्यों न हो मेरे मित्र क्यों न हो मैं तुम्हारा दास हूँ-चलो अब कुछ तीर्थ सेवन करें-बहुत हो गया. जाने दो-जाने दो जो चाहै सो करै करने दो, हमें क्या पड़ी जो दूसरों के बीच में बोलें . परमार्थ करो . हमको तो सदा गोतम जी का न्याय कंठ करना है, फक्किका फाँक के बैठ रहो वा चलो रथयात्रा का मेला देखें, या गंगा जी चलो प्रयागराज चलैं, त्रिवेनी में बुड़की लगावें, कुंभ का मेला देखो, कुम्भज मुनि का दर्शन कर अपनी आत्मा शुद्ध करें नहीं नहीं श्यामा न छूटे . श्यामा कहाँ गई तो अब श्यामा रोने लगी-मैं बड़े धन-चक्कर में पड़ा यह नहीं जानता था कि श्यामसुंदर भी यह कहानी निकट ही लतामंडप मैं छिपा छिपा सुन रहा था , मैं देखने लगा यह कौन आता है ? श्यामसुंदर ! श्यामसुंदर ही था दौड़कर श्यामा के अभिमुस्न हुआ . श्यामा ने कहा "हायरे मनमोहन प्यारे-हाय हाय कहाँ था प्यारे" ऐसा कह श्यामसुंदर की ओर दौड़ी कि उसे धाय के कंठ में लगाले त्यौंही आँसुओं का सागर उमड़ा जिधर देखो उधर जल ही जल दिखाने लगा. पानी बढ़ने लगा . पानी श्यामसुंदर के कमर तक था, श्यामा उसी शिखर पर खड़ी थी चिल्लानी "चलो चलो तर आवो.

प्रेम समुद्र अथाह है पास न खेवनहार ।
पास न नाव लखात गहि श्रास शिला लगु पार ॥"

समुद्र में पाला पड़ने लगा उत्तर की हवा बही क्षण में श्यामा की मूर्ति देखते ही देखते बिला गई . उधर श्यामा ने सहारा देने को हाथ फैलाया इधर श्यामसुंदर ने पर भावी प्रबल है . सब श्रम निष्फल हो