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गले पर फेरिए खंजर, न डरिए मैं न तड़पूँगा।
जबों भी खंच लेना तुम, अगर मुँह से फुगाँ निकले।

इस संवाद में कबूतर के उपयुक्त दोहे को 'श्यामास्वप्न' के प्रमुख और एक विशेष प्रसंग पर भीतर भी उद्धृत किया गया है । भारतेन्दु युग के प्रभाव से उन्होंने एक 'नाटिका' भी लिखी जो अप्रकाशित ही रह गई।

रोग और निराशा से पीड़ित ठाकुर जगमोहन सिंह को बहुत थोड़ी आयु मिली थी, इसीलिए उन्होंने रचनाएँ भी बहुत अल्ल की । भारतेन्दु युग की साहित्यिक हलचल से भी वे बहुत दूर रहे । प्रकृति और प्रणय की एकांत साधना में लोन वे एक अंतर्मुखी व्यक्ति थे ।

श्यामास्वप्न

'श्यामास्वप्न' कवि का एक मात्र उपन्यास है। इसके मुखपृष्ठ पर कवि ने हिन्दी में इसे 'गद्य प्रधान चार खंडों में एक कल्पना लिखा है परंतु अंगरेजी में इसे नावेल (Novel) माना है। अम्बिकादत्त व्यास ने उपन्यास को 'गद्यकाव्य' माना है और 'श्यामास्वप्न' सच्चे अर्थ में गद्यकाव्य है। इसमें गद्य और पद्य दोनों में ही काव्य की सृष्टि हुई है परंतु यह गद्य प्रधान है।

उपन्यास आधुनिक युग का सबसे अधिक महत्वपूर्ण साहित्य-रूप है, जिसे आधुनिक मुद्रण यंत्र युग की विभूति कह सकते हैं । मध्ययुगीन राजाश्रय में पलने वाले साहित्य से यह सर्वथा भिन्न है। रीतिकाल के कवियों का आदर्श था:

मोतिन कैसी मनोहर माल गुहे तुक अच्छर जोरि बनावै ।

प्रेम को पंथ कथा हरि नाम की बात अनूठी बनाय सुनावै ।