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श्यामास्वप्न

ऊधो ने बहुत प्रबोध किया श्यामसुंदर रात भर विकल रहे . भोजन और नींद सपने हो गई . सुधि बुधि तन की भूलि गई . दूसरे दिन मैंने सुलोचना द्वारा सब वृत्तांत उनका सुना . बड़े सोच में रही--क्या करती कुछ उपाय नहीं था, पर उनके मन को संतोष करना मेरा मुख्य मैंने लिख भेजा कि वट-सावित्री के पूजन के पीछे भेट होगी. मैं-दिन सखी सहेलियों के साथ वट पूजने जाऊँगी तुम भी वहीं चलना . इतना ही लिख भेजा , मैं अपने जी में प्रसन्न हुई केसर का उपटन वदन में लगाकर केसर वदनी हो गई . शुद्ध स्नान कर पीत कौषेय की सारी पहिन वसंतवधूटी बन गई . वृंदा ने मांग गुह दी, सिंदूर की रेख धर दी . सीस फूल खोंस लिया, नागिन सी चोटी पीठ पर लहराती थी . नेत्रों में काजर की रेख मात्र लगा ली . कानों में कर्णफूल सोने के--कंठ में विद्रुम और हेम की कंठी, सोने की हँसुली--श्याम- सुंदर की दी कांचनी माला--लिलार में टीका--पटियों में बंदनी-हाथों में गुजरियाँ-पैरों में पैजनियाँ--बाजूबंद इत्यादि पहन के पूजा करने को वृंदा, सुलोचना, सावित्री, सत्यवती, सुशीला, मालती, मदनमंजरी, चंपककलिका, सुरतिलतिका इत्यादि सबों के साथ चली . वट का वृक्ष निकट ही तो था सब सहेलियाँ मंगलगीत गाती चली . श्यामसुंदर ऊधो के साथ दूसरी ही वाट से पहुँचे . सैकड़ों के बीच में से उन्होंने मुझै चीन्ह लिया और उनके नैन किबिलनुमा की भाँति मेरे ही ऊपर छा गए-

"वाही पर ठहराति यह किबिलनुमा लौ डीठि"

और मेरी भी गति चातक चकोर सी हो गई थी-

'फिरै काक गोलक भयो देह दुहुन मन एक'

श्यामसुंदर मेरी छबि पर रीझ गए आँख आँख से मिली और मन मन से, पर हाय रे समय ! हम लोग यद्यपि अति निकट थे बोलचाल न सके . पूजा समाप्त हुई . मैं उसी राह से अपने घर आई और वे भी . ,