जगमोहन सो सब तुच्छ सो जानि गिन्यो नहें रंचुसाले परे।
जिय ठानि बड़ो पन रोपि रच्यो तब श्थामा सुस्वप्न के जाले परे ॥
'श्यामास्वप्न' में जो रोगग्रस्त हो जलवायु-परिवर्तन के लिए स्थान-स्थान पर घूमने का वर्णन है सम्भवतः उपयुक्त सवैया में उसी रोग की ओर संकेत किया गया है। इसके आगे का सवैया इस प्रकार है:
यह चैत अचेत करै हमसे दुखियान को चाँदनी छार करै ।
पर ध्यान धरो निसिवासर सो जेहि को मुहि नाम सुपार करै ।।
यह श्यामासरोजनी सीस लसै मन मानस हंसिनी हार करै ।
जगमोहन लोचन पूतरी लौं पल भीतर बैठि बिहार करै ॥
इसमें श्यामा के वियोग में विरह-व्यथा का उत्कृष्ट वर्णन हुआ है। 'श्यामा सरोजनी' की भूमिका में लिखा है कि 'श्यामास्वप्न' के पीछे इसी में हाथ लगाया और श्रीपुर में वसंतोत्सव तक इसे समाप्त कर दिया। इस ग्रंथ के समर्पण में, जो श्यामा को ही समर्पित किया गया है, कवि ने उपसंहार रूप में लिखा है :
"नेकी बदी जो बदी हुती भाल में, होनी हुती सु तो होय चुकी री"-पर यह तुम दृढ़ बाँध रखना कि मैं अद्यापि तेरा वही सेवक और वही दास हूँ जिसको तूने इस कलियुग में दर्शन देकर कृतार्थ किया था-अब आप अपनी दशा तो देखिये मैं तो यही कह कर मौन हो जाता हूँ-
जिनके हित त्यागि के लोक की लाज को संग ही संग में फेरो कियो ।
हरिचंद जू त्यों मग आवत जात में साथ घरी घरी घेरो कियो।
जिनके हित मैं बदनाम भई तिन नेकु कह्यो नहिं मेरो कियो।
हमैं व्याकुल छाड़ि के हाय सखी कोउ और के जाय बसेरो कियो ॥
इससे भी यही प्रमाणित होता है कि उन्होंने जीवन में किसी से प्रेम करके निराशा पाई थी । श्यामास्वप्न' में श्यामा के दोनों ही प्रेमी--