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श्यामास्वप्न

मैं फिर लिखूगी . क्षमा करना.

तुम्हारी नेह देह तरुवर की
 
श्यामालता."
 

इस पत्र को वांचते ही श्यामसुंदर को हर्ष विषाद दोनों एक संग ही उपजे . हँसे और आँसू गिराए • सुलोचना से कहा जाव मेरी दशा कह देना और क्या कहूँ--इतना कह मौन हो गए . पत्र को फिर फिर वांचा . हृदय में लगाकर कहा .

"श्लिष्यति चुम्बति जलधर कल्पम्
हरिरुपगत. इति तिमिरमनल्पम् .

निराश से हो गए • मुख से कुछ नहीं कहा भीतर चले गए . फिर बाहर आये . वसन धारन कर निकल पड़े, अकेले थे कोई (किसी) अनुचर को भी साथ में न लिया . नदी के तीर तीर घूमने लगे . चक्रवाक के जोड़े देखकर रोने लगे. फिर आँसू पोंछ आगे बढ़े, दूर ही से मुझे घाट में नहाते देख ठठुके. मैंने भी उन्हें देख लिया. विलंब किया अंत को जब सब घाटवारी नहा धो के चली गई -३यामसुंदर आगे बढ़े. जहां मैं थी वहाँ तो कोई न था पर यदि दूसरे (दूसरी) ओर कोई रहा हो तो मैंने नहीं देखा, उन्होंने भी नहीं देखा. बस मेरे पास आ गए, ऐसे दीन हो बोले कि मेरा जी नवनीत सा पिघल गया. मैं उन बचनों को क्या कहूँ- कहे नहीं जाते छाती फटी जाती है, सुधि करते ही जी टूक टूक होता है मुझे स्मरण मत करावो-"

इतना कह श्यामा की बुद्धि भ्रश हो गई-पुरातन वृत्तान्त मन नेत्रों के सन्मुख नाचने लगा -मैंने कहा “श्यामा-तुम्हारी संज्ञा कहां गई—इस विचारे श्यामसुंदर अभागे की कथा पूरी कर"-इतना कह प्रबोध किया

श्यामा बोली-'मैं उनका विलाप नहीं कह सक्ती-अपने को ७