की समाधि लगाकर उन्हें ध्यान में पूजती थी. इस प्रकार की पूजा सबसे उत्तम होती है. एक घंटा दिन चढ़ा, दो घंटा बीता, तीसरी घड़ी में नदी के उस पार कुछ मनुष्य दिख पड़े--फिर कुछ घोड़े दिखाने--मेरे जी में तो धक्का सा लगा . मैं हक्का बक्का हो गई, जी कूद उठा . छिन भर डिरा सी गई, फिर खड़ी होकर देखने लगी . मेरे घर की अटारी बहुत ऊँची थी, उस पर से बहुत दूर का दिखाता था, उसी पर से देखने लगी. घोड़ा ज्यौंही निकट आता था मुझे यही जान पड़ता था कि वे ही हैं . अंत को नदी के उस तीर पर आया . पानी टिहुँनी तक रहने के कारन नाव की अपेक्षा कुछ न थी. घोड़ा पानी में हिला, पानी पीने लगा, फिर सांस लेने को सिर उठाया, फिर ग्रीवा युकाई और कुछ पीपा के आगे चला . वह आया--वह आया -जी में इतना हर्ष हुआ कि वृंदा न होती तो मैं कब की नीचे दिखाती . वे इस पार आए, अचानक आ गए . किसी प्रतिष्ठित को यहाँ से आगे जाने का अवकाश न मिला कि आगू चल के ल्या-वे कदाचित् यही चाहते थे. -घाट पर आए, घाट से उनके कुटीर की दो राहैं फूटी थी--एक तो सूधी वंशीवट के तरे से होकर, दूसरी सूधी मेरे घर के तरे से होकर उनके घर को जाती थी . यह दूसरी राह टेढ़ी थी-पर उन्हें इसकी क्या चिंता जो सोचते . यह तो राह ही टेढ़ी थी जो उनने धरी . सूधी वाट छोड़ मेरी ही गली से निकले.
“जहाँ तल्वार चलती है उसी कूचे से जाना है"
यहाँ पहुँचते ही उनकी आँखें कोने कोने दौड़ी मानौ मुझे ही ढूँढ़ती थीं-मैं तो ऊपर की खिरकी से उन्हें निहारती थी. वे तो घोड़े पर थे . खोर में इधर उधर देखा-कोई न दिखा तब अपने कलेजे से पलाश की डार मय गुच्छे के मुझे हाथ से चौंका दिया-बोले कुछ नहीं पर चार आँखें हो गई-हिये से हिया, दूर ही से मिल गया, ललाट खुजाने के मिस मुझे प्रणाम किया, वृंदा को देख हँस पड़े . सुलोचना की ओर