परोसिन थी, भला उस्से मैं सब अपने मन का भेद कह देती सौर वह मेरी तथा वृंदा की भी प्रणोपम सखी थी . मेरी ही जाति होने के कारन और भी घनी प्रीति लग गई थी . जब समय पाती वह मेरे घर और मैं उसके घर उठने बैठने आती जाती . इसका नाम सुलोचना था-सुलोचना क्या यदि इसका दुःखमोचना भी नाम धरते तो भी कुछ सोचना न था, यह मेरे लिये सचमुच दुःखसोचना थी . वृंदा ने इसे भी जगाया और अब हम तीनों नहाने चली . हम तीनों पढ़ी थीं -यह और आनंद था- रास्ते में वृंदा ने छेड़ा-"क्यौं गुइयाँ आज हमें अवश्य पेड़ा खाने को मिलेगा न-अचरज नहीं कि भोर ही कलेवा के समय मेवा मिलैं".
सुलोचना ने कहा-"पेड़ा तो नहीं पर भेड़ा अवश्य मिलेगा , कहु तौ आज पेड़ा की भोरही को सूझी-क्या पेड़ा ही पेड़ा तो नहीं सपनाती रही?"
-"नहीं गुई, इसमें बड़ा भेद है, उसे सुनोगी तो छाती में छेद हो जायगा. पर मैं कुछ नहीं जानती-श्यामा से पूछ इसका भेद वही बतावैगी.
मैं त्यूरी चढ़ाके बोली-“ऐसी हँसी मेरे मन नहीं भाती . भला मैं क्या जानूँ, वृंदा बड़ी ठठोल है".
सुलोचना बोली-( हँसकर ) “ठठोल है तभी तौ ढोल पीटेगी . मैं क्या जानूँ-वृदा से पूछ वही आज सबेरे से “पेड़ा पेड़ा" बक रही है".
वृंदा हँस पड़ी, कहने लगी-"यह कलजुग का तो पहरा है- जिस्के हित की करै वही उलटा चिढ़ती है भला गियाँ ! तू ही सोच मैं ने श्यामा के विषय में कुछ बुरा कहा"--मैं जी में जान गई कि इन दोनों ने जान लिया-क्या करूँ कुछ कहा नहीं गया . कहा कैसे जाय-- सच्ची बात को झूठी करने में बीस और झूठ मिलानी पड़ती है और वृंदा बोली- .