श्यामसुंदर को निकलते देखा, मेरी उनकी चार आँखें भईं, उन्होंने मेरा प्रान अपने साथ ले लिया-बार बार मुरक मुरक मेरी ओर दृष्टि फेकते थे . मैं भी मुर मुर देखती थी-अपने नेत्रों में जल भर लिया . भी वही दशा हो गई . सूख साख काठ हो गई, मुख से वचन न निकला . ज्यौही मेरे घर के नीचे आए मुझसे रहा न गया- यह दोहा पढ़ा
"चलत चलत लो लै चले सब सुख संग लगाय ।
ग्रीषम वासर शिशिर निशि पिय मो पास बसाय ॥"
इस दोहे को उन्होंने नीचा सर करके सुन लिया और एक दोहा उसी समय बना कर पढ़ा .
जौं शरीर पागू चलत चपल प्रान तुहि जात ।
मनौ वातवस फरहरा पाछे ही फहरात ॥
जो कुछ उन्होंने कहा सब सत्य था . मैंने अपने जी में बहुत धीरज धरा पर एक भी काम न आया . मेरी दृष्टि उनके पीछे चली, वे गए-नदी के तट पर पहुँचे . रथ पर चढ़ चले. मेरा भी जी मन के रथ पर बैठ कर उनके पीछे हो लिया . वे जाते हैं, मझधार में पहुँचे . इधर मेरा भी जी प्रीति की नदी के मझधार पहुँचा . केवट तो चला जाता था, मुझै कौन बचाता; पर आशा वृक्ष की शाखा पकड़ कर लटक गई . श्यामसुंदर गए, उस पार हुए पर मैं इसी पार थी . एक मन हुआ कि घर की कुल कान छोड़ दौड़ जाऊँ-पर लाज के लगाम ने मुहजोरी रोक दी . नदी के तीर तक मैं भी गई . श्यामसुंदर उस पार पहुँच कर ऊँचे टीले पर बैठ पारदर्शक यंत्र को अपने नैनों से लगा- मुझे देखने लगे . क्या जानै मैं उन्हें दिखी या नहीं पर मैं उन्हें जहाँ तक दृष्टि गई बराबर देखती रही . वन की लता पता मेरे ऐसे बैरी भए कि उन्हें शीघ्र ही लोप कर दिया . रथ चला, पहिए के धूर दिखाने वे गए,