बस्यो मधि देश अराम सकाम विजै पुनि राघव दुर्ग नरेश।
अहौं तिन आत्मज दीन सुनो रहि काशी पढ़ी तहँ बानी सुरेश।
लही तहँ अंगल और सुफारसी बंगल मंगल दीन्हों महेश।
जुबान तो कैयक के सतसंग चुनी जगमोहन सो लवलेश।
अर्थात् सत्संग करके कवि ने काशी में अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया परंतु काशी में रहकर सबसे मूल्यवान वस्तु जो उन्होंने प्राप्त की वह भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की भित्रता थी और 'मेघदूत' के अनुवाद में उन्होंने भारतेन्दु की सहायता भी कहीं कहीं ली है। भारतेन्दु का प्रभाव उनपर काफी पड़ा और उन्हाने अपने साहित्य में स्थान स्थान पर भारतेन्दु की कविताएँ उद्धृत की हैं। 'श्यामास्वप्न' में तो श्यामसुंदर भारतेन्दु का बड़ा ही घनिष्ठ मित्र सा जान पड़ता है जो प्रायः उनकी कविताओं की उद्धरणी करता रहता है :
सन् १८७८ में ठाकुर साहब ने अपना अध्ययन समाप्त किया और दो वर्ष घर पर रहकर १८८० में मध्यप्रदेश के रायगढ़ जिले में धनतरी के तहसीलदार नियुक्त हुए। छत्तीसगढ़ के अंतर्गत शबरीनारायण में ये बहुत दिनों तक मजिस्ट्रेट और तहसीलदार रहे। परंतु इस सेवा वृत्ति से ये प्रसन्न नहीं थे। 'श्यामा सरोजनी' में उन्होंने अपने हृदय की व्यथा इस प्रकार प्रकट की है:
छुटी धरनी धन धाम बिराम कछू यह पूरब जन्म की रेख।
सुशासक जो अब शासित हे जगमोहन के यह कर्म को देख।।
नौकरी करते हुए ये प्रमेह रोग से ग्रस्त हुए, डाक्टरों की सम्मति से जलवायु-परिवर्तन के लिए छः मास तक भिन्न भिन्न स्थानों में घूमे। रोग तो कम अवश्य हो गया परंतु जड़ से नहीं गया। अंत में इन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और कूचबिहार की स्टेट-काउंसिल के मंत्री का पद स्वीकार कर लिया। कूचबिहार के महाराज नृपेन्द्र नारायण भूप: