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की पुष्ठि इस से उत्तम और क्या हो सकती है कि यह उन के चरणोदक को शिर पर धारण करें ! योंही विष्णु देव की परम शैव कहा है क्या है कि लक्ष्मीपति, सदा सहस्त्र कमल लेके पार्वतीपति की पूजा किया करते हैं एक दिन एक कमल घट गया तो उन्हों ने यह विचार के कि हमारा नाम पुंडरीकाक्ष है एक नेत्र रूपी पुंडरीक अपने इष्ट देव के पादपद्म पर अर्पण कर दिया ! सच है इस से अधिक शैवता और क्या होगी ! शास्त्रार्थ के लती ऐसे उपाख्यानों पर अनेक कुतर्क कर सकते हैं पर उन का उत्तर हम कभी पुराण प्रतिपादन में देंगे इस स्थल पर केवल इतना ही कहेंगे कि कविता पढे बिना ऐसे लेख समझना कोटि जन्म का असंभव है ! हाँ इतना कह सकते हैं कि यह भगवान वैकुंठ नाथ की शैवता और कैलाशनाथ की वैश्नवता का अलंकारिक वर्णन है ! वास्तव में विष्णु अर्थात् व्यापक एवं शिव अर्थात कल्याणमय यह दोनों एकही प्रेम स्वरूप के नाम हैं । पर उस का वर्णन पुर्णतया असंभव होने के कारण कुछ २ गुण एकत्र करके दो रूप कल्पना कर लिए गए हैं जिस में कवियों की वाणी को सहारा मिलै ! हमारा प्रस्तुत विषय शिव मूर्ति है और वह शैव समाज का आधार है अतः इन अप्रतक्यं विषयों का दिग्दर्शन मात्र करके अपने शैव भाइयों से पूछा चाहते हैं कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों के साथ किस वीरते पर द्वेष रख सकते हैं ? यदि धर्म से अधिक मत वाद प्रिय हो तो अपने प्रेमाधार को गंगाधर