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मृत्तिकामयी प्रतिमा का प्रयोजन है कि उन की सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं जैसे मट्टी और जल का अभाव कहीं नहीं है ऐसे ही उन का वियोग भी कहीं नहीं है ! धन और गुण का भी उन के मिलने में काम नहीं है ! वे निरधनों के धन हैं ! जिसे जीवनयात्रा का कोई सहारा नहीं वुह मट्टी बेंच के पेट पाल सकता है योहीं जिसे कहीं गति नहीं उस के सहायक कैलाशवासी हैं ! सब पदार्थ का आदि मध्यावसान ईश्वर के सहारे है इस बात का दृष्टाँत भी मृतिका ही पर खूब घटता है इस के अतिरिक्त पार्थिवेश्वर का बनना भी बहुत सहज है लड़के भी माटी सान के निर्माण कर लेते हैं यह इस बात की सूचना है 'हुनर-मंदो से पूछे जाते हैं वां बेहुतर पहिले'!

गोवर का स्वरूप यह प्रगट करता है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है ! हृदय मंदिर की कुवासना रूपी दुर्गन्ध वही दूर करता हैं।

पारदेश्वर ( पारे की मूर्ति ) यह प्रकाश करते हैं कि परमेश्वर हमारे पुष्ठिकारक हैं 'सुगंधम्पुष्ठि वर्द्धनं' वेद वाक्य है ' ।

यदि मूर्ति बनाने बनवाने की सामर्थ्य न हो तो पृथिवी जल आदि अष्ठमूर्ति बनी बना ईविद्यमान हैं ! वास्तविक प्रेम मूर्ति मन के मंदिर में है ही पर तौभी यह दृश्य मूर्तियां भी निरर्थक नहीं है ! इन के कल्पना करनेवालों की विद्या और बुद्धि प्रतिमानिंदकों से अधिक ही थी ! मूर्तियों की रग औ