पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/९३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शृङ्गारनिर्णय। गो मेरे प्रजङ्कही जपर जाने को याको कहा मन भायी। गाडून को चरवाही विहाय के बे. परवाही बनावत पायो । २७१ ।। विस्वसहाव लक्षा-दोहा। कहियत विनमहाव जहँ भूलि काज कै जाइ। कौतूहल बिच्छेय विधि याही में ठहराद॥२७२॥ यथा कवित्त । उलटी थों सारी किनारीवारी पहिचानो यह के प्रकास या जुन्हाई बिमलाइ मैं । दास उलटी पै बंदी उलटी ये ऑगी उलटोई अत. रौटा पहिरे हो उतलाडू में ॥ भेदन बिचायो गुञ्ज मालै औ गुलीक माले नीलो एकपटौ अरु मिली एकलादू मैं। लली कित गली कित जाती हौ निडर चली की कटि कसन औ किङ्किनि मैं कौतूहलहात्र यथा-सवैया। जास सु कौतुक सौध लै सौध पै धाय चढ़ी वृषभानकिसोरी । दास न दूरि तें दीठि थिरै . ।