पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/७५

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शृङ्गारनिय। धनी है। कहैं आवतो कैसो बनो वैक मन. भावती कैसी बनी है ॥ २३८॥ सन्टरमन यथा। आहट पाय गोपाल को बाल सनेह क्षेगा- सनि सो गसि जाती। दौरि दरीची के सामुहें है हग जोरि सो भौहन में हँसि जाती ॥ दास न जानत कोऊ कहूं तन में मन मैं छवि में बसि जाती। प्यार को तार कसौटिन में अपनी कृषि कञ्चन सौ कसि जातौ ॥ २१६ ॥ अाहे को दास महेस महेखरि पूजनकाज प्रसूनन तूरति । काहे को प्रात नहाननि के बह दाननि दै ब्रत संजम पूरति ॥ देख रो देख चंगोटि के नैननि कोटि मनोज मनोहर मूरति । येई हैं लाल गोपाल अली जिहि लागि रहै दिन हैन बिसूरति । २२० ॥ परिहास। मोहन आपनो राधिका को विपरीति को चित्र विचित्र बनाय के । दौडि बचाय सलोनी