पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/२८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शृङ्गारनिय । । अथ परकीया दोचा। टुरे दुहे परपुरूष ते प्रेम करै परकीय प्रगल्भता मुनि धीरता भूषन है रमनीय ॥७६ ॥ यथा सवैया। आलिन आगे न बात कतै न बदै उठि ओठनि ते मुसुकानि है। रोस सुभाय कटाच्छ के घायन पाय को आहट जात ना जानि । दास न कोऊ कई कबहू कहै कान्ह तें याते कछू पहिचान है। देखि परै हुनियाई में दूजी न तोसी तिया चतुराई को हानि है ॥ ७० ॥ प्रगलमता लक्षण दोहा। निधरक प्रेम प्रगल्भता जौलो जानि न जाडू जानि गए धीरत्व है बोले लाज बिहाइ ७८ यथा सवैया। स्तरिख पौर में दास जू प्यारों खरो तिथ रोम पसीननि चे चलती। मिसकै गृहलोगन सी सुघरी सुघरीही घरी ढिग द्वै चलती ॥ जग बचाय मिलाब के नैननि नेह के बीजन बै च-