पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/१०३

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शृङ्गार Fitfara an- कन्त कन्त मानि के अनन्त सुख ठानती। ज्यों को त्यों बनार्दू फेरि हरि दूत उत हिय राहि में दुराडू यह काजनि बितानती॥ दास जू सकल भाँति होती सुचिताई फेरि ऐसौ टुचिताई मन भूलेहूं न मानती। चित्र के अनूप ब्रजभूप के सरूप को जौ क्योंहूं आपरूप ब्रजभूप करि मा- नती।। ३.६ ॥ विकल्पचिता यथा - शंवैया। कोठनि कोठनि बीच फिस्यौ वह भेष बनाय भुलाबनवारो । अपरी बात सुनाइ के आपनी लै गयो भीतरी भेद हमारो ॥ दास लियो मन- यौटि अँगोटि उपाइ मनोज महीप जुझारो। टूटै न कों सखी लाज गढ़ी पहिले हो गयो सुधि ले हरि कारो॥ ३.७ ॥ गुन कथन - दोहो। दासदसा गुनकथन में सुमिरि सुमिरि तिय पोय। अंग अंगनि भरने सहित रसरङ्गानि रमनीय थथा भया। चन्द सो आनन को चट कौलता कुन्दन सौ