५२ शिवा बावनी करते हैं और किसी बादशाह की सेना पर तलवार चलाते हैं। यदि शत्रुओं की सियां पाप का प्रताप सुन कर पागल हो गई हैं, तो इसमें माश्चर्य ही क्या ? वह बेचारी क्या आपके पाक- मण सहन कर सकती हैं ? आपके नगाड़ों की धुंकार सुनकर शत्रुभों के नगर-निषासी ऐसे रो रहे हैं कि उनके मांसुओं की नदियाँ बड़ी बड़ी नौकाओं से ही पार की जा सकती हैं। टिप्पणी यहां अतिशयोक्ति और अमातुन प्रशंसा अलङ्कार हैं। अतिशयोक्ति का लक्षण छन्द ३६ तथा प्रस्तुत प्रशंसा का लक्षण छन्द ३ में दिया है। दौरनि=धावा से । निबार बड़ी नावें ।। 'वैरिन को-बैरि-वधू लिखना पुनरुक्ति दोप है। छन्द ४१ और ४४ में शिवा जी की करनाटक की प्रचंद चढ़ाई का वर्णन किया गया है। खग्ग बाहियतु है-तलवार चलाते हो। चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठे बार बार, दिल्ली दहसति चित चाह करषति है। विलखि बदन बिलखात विजैपुर पति, फिरति फिरंगिनि की नारी फरकति है। थर थर कांपत कुतुब साह गोलकुंडा, हहरि हवस भूप भीर भरकति है। राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि, केते पातसाहन का छाती दरकति है ॥४२॥
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शिवा बावनी