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शिवा बावनी

शिवा बावनी बेदिल, करनाल, परनाले। और अब एक ही अक्षरं शब्दों के आदि में भाता है तब इत्यनुपास होता है जैसे चन्द्रावल चूर, जावली जपत, भूषन भनत, सोवो सुख सिंहहिं श्रादि । दलयंम दल को थाँभनेवाले अर्थात् सेनापति । तबल-डंका । रिसालैं खिराज, राज्य-कर । करनाले तोड़ें। मालती-सवैया साजि चमू जनि जाहु सिवा पर, सोवत सिंह न जाय जगावो । तासों न जंग जुरौ न भुजंग महा, विष के मुख में कर नायो । भूषन भाषति बैरि बधू जनि, एदिल औरंग लौं दुख पावो । तासु सुलाह की राह तजौ मति, नाह दिवाल की राह न धावो ॥३२॥ भावार्थ शत्रुओं की त्रियां अपने अपने पति से कहती हैं कि सेना सजा कर शिवाजी पर चढ़ाई मत करो, क्योंकि उसे छेड़ना मानों सोते हुये सिंह को जगा देना है। उस के साथ मत लड़ो, क्योंकि उस से युद्ध करना मानों महा विषले साँप के मुख में हाथ डालना है। बीजापुर के शासक आदिलशाह और औरंगजेब की भांति श्राफ़त में मत पड़ो। हे नाथ,