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शिवसिंहसरोज


१५३. गोपालराय कवि

सजे दूरघ मघ के वन निसान सघ के भजे समुघ हघ के लगे तिलंक दौरिया । चढ़े ति सूर सारसी वने ति वीर साहसी वि– लोकि कालिका हँसी धरै न धीर गौरिया ॥ अरिंदनारि कंत सो भनै दुचैन मंत स कहै गोपाल छंद सो गहै त्रिदेव गौरिया। मिलो तुरंत ताहि को जहान तेज जाहि को नरिंदलाल साहि को। समूह सैन दौरिया ।। १ ॥ उठी जु रेनु रंग मों विछोह मां रथंग मां लख्यो न नीर गंग मो फुली कुमुद की कली। सरोज फूल संकुले उलूकनैन हैं खुले फनिंद भार सो भुले उमंडि कै चमू चली ॥ ठटयो प्रताप भानु को जसद के निसान को चढ़यो पहार खान को इदिल्ल खाँ मसन्दली । गोपालराय यो कहै न कोट वैर हू गहै ते भाजि कन्दरा रहै सम्हारि सुन्दरीन ली ॥ २ ॥

१६०, गदाधरराम कवि

बस है मुरलीसुरलीन किधौ किधौ कूल कलिन्दी के टोहन गो। किधौ पीतपटा लखि या लकुटी किधौ मोरपखा छवि गोहन गो ॥ किधौं लाल कमाल के मध्य फँस्यो किधौ कामकमान सी भौहन गो । हम का सौं गदाधर जोग करै मन तौ मनमोहन गोहन गों ॥ १ ॥

१६१. गुणाकर त्रिपाठी काँथानिवासी

फूले हैं रसाल नव पल्लव विसाल वन जूही औ पलास मल्ली आदि वह को गनै । कूजत विहंग पिंक कोकिलादि एकसंग गुंजत । मलिंद बन वीथिकान में घन ।। वहत समीर मंद सीतल सुरमि धीर रहत न जोगजुत मुनिगन के मनै । एरे ब्रजरंग ऐसे समै देहु संग नतु दहन अनंग मिसु गोपिकान के तनै॥ १ ॥ होत प्रभाकर के से उदै दुख राति आरांति तमोगुन त्यागत । मीत सरोज विकासि रहे द्विजराज सवै मुंद मानस भ्राजत ॥


१ मुरली के स्वरों में लीन । २ शत्रु ।