शिवसिंहसरोज | ३७५ |
दासजनलौकिकालौकिके सर्वथा फेवचित्तोदयति हृदयदेशे ॥ स्थापयत मानस सततकृतलालरसं सहजसुखमारुचिररूपवेशे । भालगततिलकमुद्रादिभासझितमस्तक़ाबद्धसितष्णके ॥ सहज हासादियुतवदनपंकजसरसव चनरचनापराजितपुदेशे । अखिलसाधनरहित,पशुतसहितमतिदासहरिदासगातनिजवले १॥ गायो न गोपाल मन लाय के निवारि लाज पायो न प्रसाद साधुमएडलीन जायके । घायो न धमकि वृंदविपीन के कुजन में रहो न सरन जाइ विट्टलेसराय के ॥ नाथजु न देख छक्यो छननू छबीली छवि सिंहपौरि .पस्यो नाही सीसहू नवाय के ॥ कहै। हरदास तोही लाज हूं न झावे जिय जनम गवायो न कमायो कछु आय के ॥ १ ॥
८८हरिचरणदास कवि
( भाषा वृहितकवीवलभ )
आंनद को कद वृपभानुजा को मुखचंद लीला ही ते मोहन के मानस को चोरै है । दूजो तैसो रचिवे को चाहत विरंचि नित ससि के वनावे अजौं मुख को न मोरै है ॥ फेरत है सान आस मान पे चढ़ाय ।य फेरि पानिप चढ़ाइये को वारिधि में बोरे है । राधिका के आनन को जोट न विलोके विधि टूक-टूक तोरै फेरि टूक-टूक जेरै है ॥ १ ॥
सोरठा गनपतिपद सिर नाइ, बरनौं छन्दस्वरूपिनी । मात्रन वरन गनाइ) नाम रूप प्रतिछन्द को । ॥ १ ॥ दोहा-कहु हरिचंद्र कहूँ हरि, कहूँ चन्द्रही नाम । ग्रंथ भरे में छन्दप्रती, यहै कियो लिखि काम ॥ २ ॥