शिवसिंहसरोज ७६६. सारंग कवि. तंगन समेत काटि विहित मंतंर्गन सौ रुधिर सो रंग रनमंडल मों भरिगो । सारंग सुरवि भनै भूपति भवानीसिंह पारथ समान महा: भारथ-सो करियो ॥ मारें देखि मुगुल तुरावखान. ताही समै काहू सो, न जाना काहू नट-सो उचरिगो । वाजीगर की-सी दगावाजी करि हाथी हाथा हाथी हाथा हाथते सहादति उतरिगो ॥१॥ " ८००.सुदर्शनसिंह, राजा चंदापुर के .... . .. पदः . . विनै करौं, वनै नहीं सुबुद्धिहीन भारती। नहीं प्रसून चंदनादि पूजि कीन औरती ॥ . 'कितो कपूत पूत पै कृपा छुटै न मातु की। तजी नहीं सुदर्सनै सु. मेरि मातु जानकी ॥ १ ॥ .८०१. हरिदास कवि कायस्थ, पन्नानिवासी (१) ( रसकौमुदी) . सुघर सुहागिनि वटं विटप, पूजति भरी उछाहिं । परति पाँव री प्रेम सों, अरंति भाँवरी नाहिं ॥ १॥ खग मृग गन चित्रित जिते, निरखति तिते सहेत । पै न स्वयम्बर-चित्र पै, चंदमुखी चित देत ॥२॥ चंचल चावनि चितौनि की, जंघ जुगल दुति देख । . कदली बदली सी. सजेकदली बदली वेख ॥३॥ - चलति न आतुरी न मन्द गति देखियत सूधी भौंह भाल ना 'विसाल वंक लसिगो लिंक में न पीनंता न कुच पीन हरिदास मुख 'न मलीन न प्रभा प्रकास वसिगो ॥ लखति न सूधे औ न करति कटाच्छन को अच्छन दै दिन ते प्रमान यह सिगो । सिसुताई जोवन में कसिगो पियाको मन मानोविविचुंबक के बीच लोहगँसिगो॥१॥ . १ सरस्वती । २ बर्गद का पेड़ । ३ मोटाई।..
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