पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३४७

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज • में चंद न कदंघ यूब सेवती समेत वेला मालती पियारी में 7 सिघनाथ बाग को विलोकिबो न भावै हमें कंत घिन आायो री बसंत फुलवारी में भाग चलौ भीतर आनार कचनारन में आग लगी बाघरी गुलाला की जियारी में 7 २ ॥ दोहा—निधि महामायामई, तीन गेंद परकाल । स्वीया परकीया कही, पुरजोपिता विलास ॥ १ ॥ तीनौ के भेदन रहे, तीन लोक परिपूरि । इनहीं ते उपजत जगत, यही सजीवनभूरि ॥ २ ॥ ७१६ विराम कवि सीना के महल में घिबरा राधे सिगराम देखत प्रभा के भये भानु अस्त भूतिया । रतन अधूपन की कुंडल ते मानौ कदी चौ गुनी चटक चारु चंद्रिका अचूतिया ॥ चरच्चि चुकानो चकचत्रो चढ़ चद्धि आायो चरन विलोकि चो सत चित भूतिया । ऊपर लखत ग्यारा गियो गगनाइ गुनि चौदहशें कला को प्रति बम्पो चन्द्र तिया ॥ १ ॥ ७१७. शिवदास कवि जैसे फल झरे को बिहग औड़ि देत रूख उषा देखि सुघा छोड़े सेगर की डार को सुन सुगंध घिस जैसे अलि छाँड़ि देत मोती नर गाँईि देत जैसे आवदारको ॥ जैसे छूखे ताल को छुरंग छाँड़ि देत संग सिघदास चित्त फाटे छाँह देत यार को । जैसे चक्रबाक देस लाँढ़ि देत पावप्स में तैसे कवि छाँईि देत ठाकुर लवार को 1 १ । ७२८शिवदत कवि उत्तर महेस पुनि रामन मैनाक और तीसरी मथन जच्छादिसि १ जो छूती नहीं जा सकती । २ पुत्र ।