पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३१९

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शिवसिंहसरोज

१०० शिवसिंहसरोज ६६२ रसिकलालबाँदांवाले सोरठा गयाषिएड मा कूप, रसिकलाल सुत साँ कहै । संतत खानियो कूप, मृगनयनी पानी भरे ॥ १ ॥ ६६३ रसपुजदास ( प्रस्तारप्रभाकर पिंगल ) दोहा-धी रेखा लघु समुझि गुरु सुक-च-आकार । इनमें बरतें छन्द सव, जे कवि बुद्धि उदार।१ । ६६४. रसलीन-जुलामनबी, विक्ग्रामी ( रसप्रबोध ) दोहा-ग्यारह से चौघन सकल, हिजरी सम्पत पाइ । सव vयारह से चौब, दोहा राखे ल्याइ ॥ १ ॥ सत्रह से अंट्टानबेमदि छठि बुधवार । बिलग्राम में आइ , भयो -अवतार ॥ २ ॥ सौतिनसुख निसिकमल भो, पिय चख भये चकोर। गुरुजन मन सागर भयेलखि दुलहिनिमुख ओर।३ ॥ सखिन कहे ते आारन, नेकु न पहिरत याम । मन ही मन सकुचति डरति, भजत लाल को नाम ॥ ४ ॥ नघला मुरि बैति चिहेयह मन होत विचार । कोमल मुख सहि ना सकतपियचित्वनि को भार ॥ ५ ॥ ( फुटकर ) सोरठा--पीतम चले कमैन, मोकोगोठंा सपि है। मन करि हौं कुरबान, एंक ती, जब पाइ हों ॥ १ ।॥ ६६५, सलाखें कवि प्यारे को चीरो चुनौटिया राजत प्यारी की चुनरी लागी किनारी । प्यारे को बांगो बनो बहु सुन्दर प्यारी की कचुकी सधे सुधारी ॥ १ शुक्लपक्ष । २ कमाने को और कमान ि३ एकांत और गोसा। ४ पास और याण । - के