पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३१६

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शिवसिंहसरोज २९७। जो खंग होऊँ बसेरो करों वही कालिंदी कूल कदंब की डारन7 १ ॥ या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डागें । आठ हू सिद्धि नौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ विसारी ॥ कोचूिन हू कलधौढ़ के धाम कंरील के कुंजन ऊपर वागें । खिन सों रसखानि कहै ब्रज के बन वाग तड़ाग निहारों ।।२/ । मोरपखा सिर ऊपर राजत गुंज की माल हिये पहिशेंगी । थोट्टि पितम्बर ले लकुटी बन गात्रत गोधन संग फिरेंगी ॥ भावे री तोहिं कहा रसखनि सो तेरे लिये सब स्त्राँग करेंगी । या मुरली मुरलीधर की अंधरान धरी धरा न धरंगी ॥ ३ ॥ एक सर्वे शुरलीधुनि में रसखानि लियो कहूँ नाम हमारो । या दिन ही ते ये बैरी विसासिनि झाँकन देतीं नहीं हैं दुधारो ॥ होत चघाघ बचा सु क्यों करेगें क्यों थलि टिये प्रानपियारो। दीठि परी तब ही चटको अटंको हियरे 'पियरे पटवारी ॥ ४ ॥ संकर से मुनि जाहि जर्ष चतुरानने ध्यानन धर्म बढ़ाई। जा पंग देख देख भये सब खोजत हारे हु पार न पालें ॥ जाहि दिये लाखि मुर्गीद है जड़ हिये रसखानि कहादें । ताहि महीर की छहैं रियाँ छछिया भरि छाँछ को नाच नचावें ५ ॥ । . दृहदही चौरी मंजू डार सहकॉर की चहचही उहिल चाँकिर्त अलीन की । लहलही लेनी लता लपटी तमालन पै कहकही ता वे कोकिला की कालीन की ॥ तहंतही कंरि रेसखानि के मिलन हेत बहवहीं यानि तजि मानस मेलीन की । मंहही मंद मंद मारुत मिलन तैसी गहगही खिलनि गुलाब की कलीन की. ॥ ६ ॥ १ पता ।२ सुवर्ण । ३ चुंघची अl.ल ड़कियाँ। ५ अम६ चारों ओर