पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
शिवसिंहसरोज

शिसिंहसरे १. आनंदसिंह दिकौलियावाले माइनि राधे गई अन्षावन कंचुकी खोलि थरी मुधों की । भट्ट आनंद दोऊ कुच. ऊपर सोभा विलोकत खरे की ॥ दाग लखो दिय; पूछे लगी त, लोलीसखी वह हार्स रे की . कैंटत ही में गड़ी यहि मुकताहल-ल गोपालगरे की ॥ १ ॥ १६ मरेश कवि मासू कहए यि हिम्मृति चिहय नित करेंहायहायन मुहा पने ताका है । ऐसे वंदे वद सो सलाह न अज्ञात मन मेमके नसे का कीना कृष-हीन : साका है । कहें अमरेस जे हैं साह-सद्भर नर पूरन प्रताप मताजिनकी सभा का है। एक दिनका एक होत है नफा का दिन है जफा का एक समसफी का है । एक कासि कुच कंडकी में विमल विरमि हार मालती के सुमन धरेई कुंभिलाइ गे।ौरी गारु वंदनषगारूघनसाल) अब दीपक उ ज्या; तम छिति परछाइ 1ख़ार लि अंगर अंगारह धुपि बैठी कहा , तेरे आग्रह्मति से सुभाइ रोवसरद मुहाइ साँई लेज सार्जआंस कहत सैका के यु वाक़ मैन आइ में २ २ औौसेरी बंदीजन आधे बाली भड़न को भोज औ कलावतन कोडकर न जैसे विस्बन को वेन से उरोजरस लीवे, को बेड़िनि को विक्रम रामजनिन को जचन्द बुढतन को चतुरआन भारी मौज कीव को 17 दें औरोरी मसखरन को मग जैसे चले विपरीत धिक्कार ऐसे जीने को ।मन के रहत दुइ बातन की तंगी एक ईसर के निमित औ कड़ीस्वर के ऋीचे को 1१। २१. आलम कवि दोहा-आलम ऐसी नीति पर, सरबंस दीजे बारि । गुप्त प्रकट कैसी रहै. दीजें कट पिटरि ॥ १॥ १ छोड़कर । २ स्वभाव ३ तोता । वे वेश्या।