पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२७२

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शिवासिंहसरोज २५ ३ कल्वो चहत है । सुरसरि सूरजा मैं सूरसुता सोहै जैसे वेद के वचन बाँचे साँचे नियत है ।परिवा के इन्दु की कला जो व अम्बर म परिवा का अच्छ परतच्छ न लहत है । जैसे अनुमान परमान । परब्रह्म जैसे कामिनी की कटि कवि मीरन कहत है ॥ २ ॥ ५४६. मधुसूदन कवि बैरि रह्यो विरहा चहुं ओर ते भागिवे को कोई पार न पावै । जानत होने पर बात सचे तुम जाल को मीन कहाँलगि धागे ॥ चाहै कक संदेसो को 8 त जी महूँ आधे पे जीभ न आवै । ऊधो बा मधुसूदन सों कहियो जू कड तुम्हें राम कहावै ॥ १ ॥ ५४७. मधुसूदनदास माथुर ब्राह्मणइकापुरी के निवासी ( रामाश्वमेध भाषा ) । हे रघुकुलभूपन दुविदूषन सीतापति भगवान हरे । नवपझजलोचन भवभयमोचन आतिउदार गुम दिव्य भरे ॥ यह नृप वल भारी समर मृझारी प्रन करि बंधन कीन भो । अब वेगि छुड़ाबहु विरद बढ़ावह सबको दीन विलोकि विभो 1१॥ ५४८. मातिराम त्रिपाठी टिकमापुरवाले पूरन पुरुष के परम दृग दोऊ जानि कहत पुरान बद वानि जोरि गई । कवि मतिराम दिनपति जो निशापत् िजो दुर्दान रईि की कीरति दिसन माँ मढ़ि गई ॥ रवि के करन भये एक महा दानि यह जानि जिय आमि चिन्ता चित्त माँ चढ़ि गई । तोहूिं राज वैटत कुमाऊँ श्रीउदोतचन्द चन्द्रमा की कंरक करेज टू ते कहि गई ॥ १ ॥ ( ललितललाम ) परम प्रवीन धीर धरमपुरीन दीनबंधु सदा सुनी जाकी ईस्वर में मति है । दुर्जन विहाल करि जाचक निहाल करि । जगत में कीरति जगाई जोति अति है ॥ राज सघुसाल के सपूत पूत -