पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२६२

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शिवसिंहसरोज .२४३ ५२२. भेजन कवि सई मेरी वीर जोइ लावें वलवीर ताहि देह दोउ वीर मेरो विरह फेंटाइ ले । भेज़न छपा की पीर छपे ना छाये पीर छपाकर छपै तो छपाकर छपाइ ले ।मदन लगो है धाय धाय सों कहौरी धाथ एरी मेरी धाय नेक मोहूँ तन धाइ ले । देह मेरी थरथराइ देहरी चह्नो न जाइ देह री तनक हाथ देहरी नैयाइ ले.॥ १ ॥ जीव हैं है रसना, ख एक है तीन हैं नैन ने रूप विसेबें ॥ तीनि तिया विवि के रति एक है ताके सपूत है सेत विसर्दी । होइ न कृष्ट कहै कवि. भंजन चातुर होय हिये महूँ लेफ ॥ वाँझ को पूत बिना खियान कु निांसे में ससि प्रन देख ॥ २ ॥ ५२३, भूप कवि भूपनारायण चंदीजन कालूपुरवाले धूप फहै सुनियो सिगरे मिलि भिच्छुक बीच प जानि कोई । कोई प तौ निकोई क न निकोई क तौ रह उप सोई ॥ जानत हो बलि ब्राह्मन की गति धूलि कुपंथ भलो नहिं हई। लेइ कोई अरु देइ कोई पर सु ने यूरिख नकारथ खोई ॥ १ ॥ ५२४. भगवतदिक वृन्दावनवासी कुडलंया चितां सील सनेह गति चिंतवनि वोलनि हाल । कचरैधानि सीमन्त सुभ भाल तिलक सुखरास ॥ भाल तिलक सुखरास दृगन अंजन अति सोहै । वीरी बदन सुदेस चिबुक रसिकनमन मोहै ॥ जावक मिंहंदी रंग राग भगवतः नित उचिता। ये सोरह सिंगार मुख्य तामें बर सुचिता ॥ १ ॥ नूपुर विछिया किकिनी नीवीवन्धन : सोइ । करमृदी अंकन वलय वजूद भु दोइ ॥ बाजवूद भु दोइ ’ कंठसी दुलरी राकें ।