पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२४८

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शिसिंहसरोकें द०. व्याखस्वामी पट सैननि विसरे वैननि भोर । बैन कहन कास पियदिंय ते विहँसत कतहि किसोर ॥ दुख मेटत भेटत तुमको नहिं चुंबन देत न थोर ! कादि देत जोवनधन कर गहि लै कुचकोर अकोर ॥ का पाई गहत मम प्यारे कार्यों करत निहोर । कौनिहैिं चिकल किये नघनागर तुम पनिहाँ तुम चोर ॥ निज विहार थारोपि आन पर कोपि मानगढ़ तोर । व्यासस्थामिनी विवि मचाई सुरतिसमुद्र हिलोर ॥ १ ॥ ४६१, बल्लभ पद याती कपूर की जोति जगमगे आरती विट्ठलनाथ विराजे । घंटा ताल पखावज आवज सप्त सुरनि सारद सार्ज ॥ या आदि की उपमा कह कह ` कोटि काम निरखत लाजै । श्रीवल्लभ प्रेम प्रताप भरे नित आनंद मंगल गोकुल गा ॥ १ ॥ कवित्त । गायो ना गोपाल मन लायो ना रसाल लीला सुनि न सुबोध जिन साधुसंग पायो है। सेयो ना सवाद करि धरि अवधरि हरि कबहूं न कृष्णनाम रसना कहयों है ॥ बल्लभ श्रीविट्ठलेस प्रभु की सरन आय दीन दे के मूढ़ छन सीस ना नवायो है । रासिक कदाय अब लाज हूं न आने तोहिं मानुपसरकर कहा ा कमायोहै ।॥ १ ॥ ४२ब्रजपति। पद ग्वालिी माँगत वसन अपाने । सीतकाल जल भीतर ठाढ़ी थावत नादि दयाने ॥ तुम ब्रजराजकुमार प्रबल आति कौन परी यह बने । १ अदत ।