पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२४५

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शिवसिंहसरोज

२२६ शिवसिंहसरोज यूझे बदन दुरावते, सूचे चितवत नादि ॥ १ ॥ मम लोचन आगे सदा, खेल सखन लाय । तेरो बालविनोद खि, मे हियो सिराय ॥ २ ॥ ४७६. बंशीधर मिश्र सालेवाले जिन्हें लू मगन तेरे तिन्हें ताकि देख नर नग्न के निफारिके चढ़ाइये को जीता है । सपने की सम्पदा सुलभ साथ सब ही के सेई हित लाग्यो हरिनाम आनि होता है ।कहै मिल बंसी कब हूँ न आई मति वैसीजैसी चर्चा छहूँ ठहराय गावै गीता है । चेत नाहीं परंगो वे तरी ताके चलौ अब सीताराम जपि ले जनम जात वीत है ।१ I॥ ४८२विश्वनाथ कवि ( ५ ) प्राचीन उकृति चंगुति करि उपमा बिचारि चाहें तृक निररि सुभ अ- च्छरन कीजिये / बंद दृढ़ बंद करि अरथ अनूप धरि जमक जराउ बढ़ सोषि सुद्ध तीजिये ॥ ललित ललित पद कॅहै विस्खनाथ कई गहै कबिरीति रीति रीति रस पीजिये । उदक उदायक बलायं समान दान गाहक्षक बिना कबित्त नाहक न दीजिये ॥ १ ॥ ४८१. ब्रजराज कवि जरित गपुंज कुंजरित कोकिलादि पात पात सहकार फूल फल नये री । चंपक कदंख औ कदंब ति भाँतिन के आलबार्ल राजत तमाल बाल बचे री ॥ बेला औ चमेलता तृत एलाँ केला सृजन में सीता सुगंध भेद सीरी बाइ अये री मद सुकुमारी प्रान प्यारी ब्रजराज की आज ब्रजराज केहि काज बन गये री ॥ १ ॥ ८२बलदेव कवि (५) दासार के ब्राह्मण ( श्टुटगारपुधाकर ) पाँवन की रज पावन हेत गलीन में आारत फेरो करें । १ उक्ति और युक् ि२ सुर । ३ काफ़िया। ४ ठीक करके। ५ झम । ६ थाझा ( ७ इलायची।